chapter
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18
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78
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18
72
English
Translation
18.72. O son of Prtha ! Has this been heared by you with attentive mind ? O Dhananjaya ! Has your strong delusion, born of ignorance, been totally destroyed ?
Dr. S. Sankaranarayan
18
72
English
Translation
18.72 O Arjuna! Hast thou listened attentively to My words? Has thy ignorance and thy delusion gone?
Shri Purohit Swami
18
73
Sanskrit
original
अर्जुन उवाचनष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।18.73।।
null
18
73
Hindi
Commentary
।।18.73।। व्याख्या --   नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत -- अर्जुनने यहाँ भगवान्के लिये अच्युत सम्बोधनका प्रयोग किया है। इसका तात्पर्य है कि जीव तो च्युत हो जाता है अर्थात् अपने स्वरूपसे विमुख हो जाता है तथा पतनकी तरफ चला जाता है परन्तु भगवान् कभी भी च्युत नहीं होते। वे सदा एकरस रहते हैं। इसी बातका द्योतन करनेके लिये गीतामें अर्जुनने कुल तीन बार अच्युत सम्बोधन दिया है। पहली बार (गीता 1। 21 में) अच्युत सम्बोधनसे अर्जुनने भगवान्से कहा कि दोनों सेनाओंके बीचमें मेरा रथ खड़ा करो। ऐसी आज्ञा देनेपर भी भगवान्में कोई फरक नहीं पड़ा। दूसरी बार (11। 42 में) इस सम्बोधनसे अर्जुन्ने भगवान्के विश्वरूपकी स्तुतिप्रार्थना की? तो भगवान्में कोई फरक नहीं पड़ा। अन्तिम बार यहाँ (18। 73 में) इस सम्बोधनसे अर्जुन संदेहरहित होकर कहते हैं कि अब मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगा? तो भगवान्में कोई फरक नहीं पड़ा। तात्पर्य यह हुआ कि अर्जुनकी तो आदि? मध्य और अन्तमें तीन प्रकारकी अवस्थाएँ हुईँ? पर भगवान्की आदि? मध्य और अन्तमें एक ही अवस्था रही अर्थात् वे एकरस ही बने रहे।दूसरे अध्यायमें अर्जुनने शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् (2। 7) कहकर भगवान्की शरणागति स्वीकार की थी। इस श्लोकमें उस शरणागतिकी पूर्णता होती है।दसवें अध्यायके अन्तमें भगवान्ने अर्जुनसे यह कहा कितेरेको बहुत जाननेकी क्या जरूरत है? मैं सम्पूर्ण संसारको एक अंशमें व्याप्त करके स्थित हूँ इस बातको सुनते ही अर्जुनके मनमें एक विशेष भाव पैदा हुआ कि भगवान् कितने विलक्षण हैं भगवान्की विलक्षणताकी ओर लक्ष्य जानेसे अर्जुनको एक प्रकाश मिला। उस प्रकाशकी प्रसन्नतामें अर्जुनके मुखसे यह बात निकल पड़ी किमेरा मोह चला गया -- मोहोऽयं विगतो मम (11। 1)। परन्तु भगवान्के विराट्रूपको देखकर जब अर्जुनके हृदयमें भयके कारण हलचल पैदा हो गयी? तब भगवान्ने कहा कि यह तुम्हारा मूढ़भाव है? तुम व्यथित और मोहित मत होओ -- मा ते व्यथा मा च विमूढभावः (11। 49)। इससे सिद्ध होता है कि अर्जुनका मोह तब नष्ट नहीं हुआ था। अब यहाँ सर्वज्ञ भगवान्के पूछनेपर अर्जुन कह रहे हैं कि मेरा मोह नष्ट हो गया है और मुझे तत्त्वकी अनादि स्मृति प्राप्त हो गयी -- नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा (टिप्पणी प0 995.1)।अन्तःकरणकी स्मृति और तत्त्वकी स्मृतिमें बड़ा अन्तर है। प्रमाणसे प्रमेयका ज्ञान होता है (टिप्पणी प0 995.2) परन्तु परमात्मतत्त्व अप्रमेय है। अतः परमात्मा प्रमाणसे व्याप्य नहीं हो सकता अर्थात् परमात्मा प्रमाणके अन्तर्गत आनेवाला तत्त्व नहीं है। परन्तु संसार सबकासब प्रमाणके अन्तर्गत आनेवाला है और प्रमाण प्रमाताके अन्तर्गत आनेवाला है (टिप्पणी प0 995.3)।प्रमाता एक होता है और प्रमाण अनेक होते हैं। प्रमाणोंके बारेमें कई प्रत्यक्ष? अनुमान? आगम -- ये तीन मुख्य प्रमाण मानते हैं कई प्रत्यक्ष? अनुमान? उपमान और शब्द -- ये चार प्रमाण मानते हैं और कई इन चारोंके सिवाय अर्थापत्ति? अनुपलब्धि और ऐतिह्य -- ये तीन प्रमाण और भी मानते हैं। इस प्रकार प्रमाणोंके माननेमें अनेक मतभेद हैं परन्तु प्रमाताके विषयमें किसीका कोई मतभेद नहीं है। ये प्रत्यक्ष? अनुमान आदि प्रमाण वृत्तिरूप होते हैं परन्तु प्रमाता वृत्तिरूप नहीं होता? वह तो स्वयं अनुभवरूप होता है।अब इसस्मृति शब्दकी जहाँ व्याख्या की गयी है? वहाँ उसके ये लक्षण बताये हैं -- (1) अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः। (योगदर्शन 1। 11), अनुभूत विषयका न छिपाना अर्थात् प्रकट हो जाना स्मृति है। (2) संस्कारमात्रजन्यं ज्ञानं स्मृतिः। (तर्कसंग्रह)संस्कारमात्रसे जन्य हो और ज्ञान हो? उसको स्मृति कहते हैं।यह स्मृति अन्तःकरणकी एकवृति है। यह वृत्ति प्रमाण? विपर्यय? विकल्प? निद्रा और स्मृति -- पाँच प्रकारकी होती है तथा हर प्रकारकी वृत्तिके दो भेद होते हैं -- क्लिष्ट और अक्लिष्ट। संसारकी वृत्तिरूप स्मृतिक्लिष्ट होती है अर्थात् बाँधनेवाली होती है? और भगवत्सम्बन्धी वृत्तिरूप स्मृतिअक्लिष्ट होती है अर्थात् क्लेशको दूर करनेवाली होती है। इन सब वृत्तियोंका कारणअविद्या है। परन्तु परमात्मा अविद्यासे रहित है। इसलिये परमात्माकी स्मृतिस्वयंसे ही होती है? वृत्ति या करणसे नहीं। जब परमात्माकी स्मृति जाग्रत् होती है तो फिर उसकी कभी विस्मृति नहीं होती? जबकि अन्तःकरणकी वृत्तिमें स्मृति और विस्मृति -- दोनों होती हैं।परमात्मतत्त्वकी विस्मृति या भूल तो असत् संसारको सत्ता और महत्ता देनेसे ही हुई है। यह विस्मृति अनादिकालसे है। अनादिकालसे होनेपर भी इसका अन्त हो जाता है। जब इसका अन्त हो जाता है और अपने स्वरूपकी स्मृति जाग्रत् होती है? तब इसको स्मृतिर्लब्धा कहते हैं अर्थात् असत्के सम्बन्धके कारण जो स्मृति सुषुप्तिरूपसे थी? वह जाग्रत् हो गयी। जैसे एक आदमी सोया हुआ है और एक मुर्दा पड़ा हुआ है -- इन दोनोंमें महान् अन्तर है? ऐसे ही अन्तःकरणकी स्मृतिविस्मृति दोनों ही मुर्देकी तरह जड हैं? पर स्वरूपकी स्मृति सुप्त है? जड नहीं। केवल जडका आदर करनेसे सोये हुएकी तरह ऊपरसे वह स्मृति लुप्त रहती है अर्थात् आवृत रहती है। उस आवरणके न रहनेपर उस स्मृतिका प्राकट्य हो जाता है तो उसे स्मृतिर्लब्धा कहते हैं अर्थात् पहलेसे जो तत्त्व मौजूद है? उसका प्रकट होना स्मृति है? और आवरण हटनेका नाम लब्धा है।साधकोंकी रुचिके अनुसार उसी स्मृतिके तीन भेद हो जाते हैं -- (1) कर्मयोग अर्थात् निष्कामभावकी स्मृति? (2) ज्ञानयोग अर्थात् अपने स्वरूपकी स्मृति और (3) भक्तियोग अर्थात् भगवान्के सम्बन्धकी स्मृति। इस प्रकार इन तीनों योगोंकी स्मृति जाग्रत् हो जाती है क्योंकि ये तीनों योग स्वतःसिद्ध और नित्य हैं। ये तीनों योग जब वृत्तिके विषय होते हैं? तब ये साधन कहलाते हैं परन्तु स्वरूपसे ये तीनों नित्य हैं। इसलिये नित्यकी प्राप्तिको स्मृति कहते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि इन साधनोंकी विस्मृति हुई है? अभाव नहीं हुआ है।असत् संसारके पदार्थोंको आदर देनेसे अर्थात् उनको सत्ता और महत्ता देनेसे राग पैदा हुआ -- यहकर्मयोग की विस्मृति (आवरण) है। असत् पदार्थोंके सम्बन्धसे अपने स्वरूपकी विमुखता हुई अर्थात् अज्ञान हुआ -- यहज्ञानयोग की विस्मृति है। अपना स्वरूप साक्षात् परमात्माका अंश है। इस परमात्मासे विमुख होकर,संसारके सम्मुख होनेसे संसारमें आसक्ति हो गयी। उस आसक्तिसे प्रेम ढक गया -- यहभक्तियोग की विस्मृति है।स्वरूपकी विस्मृति अर्थात् विमुखताका नाश होना यहाँस्मृति है। उस स्मृतिका प्राप्त होना अप्राप्तका प्राप्त होना नहीं है? प्रत्युत नित्यप्राप्तका प्राप्त होना है। नित्य स्वरूपकी प्राप्ति होनेपर फिर उसकी विस्मृति होना सम्भव नहीं है क्योंकि स्वरूपमें कभी परिवर्तन हुआ नहीं। वह सदा निर्विकार और एकरस रहता है। परन्तु वृत्तिरूप स्मृतिकी विस्मृति हो सकती है क्योंकि वह प्रकृतिका कार्य होनेसे परिवर्तनशील है।इन सबका तात्पर्य यह हुआ कि संसार तथा शरीरके साथ अपने स्वरूपको मिला हुआ समझनाविस्मृति है और संसार तथा शरीरसे अलग होकर अपने स्वरूपका अनुभव करनास्मृति है। अपने स्वरूपकी स्मृति स्वयंसे होती है। इसमें करण आदिकी अपेक्षा नहीं होती जैसे -- मनुष्यको अपने होनेपनका जो ज्ञान,होता है? उसमें किसी प्रमाणकी आवश्यकता नहीं होती। जिसमें करण आदिकी अपेक्षा होती है? वह स्मृति अन्तःकरणकी एक वृत्ति ही है।स्मृति तत्काल प्राप्त होती है। इसकी प्राप्तिमें देरी अथवा परिश्रम नहीं है। कर्ण कुन्तीके पुत्र थे। परन्तु जन्मके बाद जब कुन्तीने उनका त्याग कर दिया? तब अधिरथ नामक सूतकी पत्नी राधाने उनका पालनपोषण किया। इससे वे राधाको ही अपनी माँ मानने लगे। जब सूर्यदेवसे उनको यह पता लगा कि वास्तवमें मेरी माँ कुन्ती है? तब उनको स्मृति प्राप्त हो गयी। अबमैं कुन्तीका पुत्र हूँ -- ऐसी स्मृति प्राप्त होनेमें कितना समय लगा कितना परिश्रम या अभ्यास करना पड़ा कितना जोर आया पहले उधर लक्ष्य नहीं था? अब उधर लक्ष्य हो गया -- केवल इतनी ही बात है।स्वरूप निष्काम है? शुद्धबुद्धमुक्त है और भगवान्का है। स्वरूपकी विस्मृति अर्थात् विमुखतासे ही जीव सकाम? बद्ध और सांसारिक होता है। ऐसे स्वरूपकी स्मृति वृत्तिकी अपेक्षा नहीं रखती अर्थात् अन्तःकरणकी वृत्तिसे स्वरूपकी स्मृति जाग्रत् होना सम्भव नहीं है। स्मृति तभी जाग्रत् होगी? जब अन्तःकरणसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद होगा। स्मृति अपने ही द्वारा अपनेआपमें जाग्रत् होती है। अतः स्मृतिकी प्राप्तिके लिये किसीके सहयोगकी या अभ्यासकी जरूरत नहीं है। कारण कि जडताकी सहायताके बिना अभ्यास नहीं होता? जबकि स्वरूपके साथ जडताका लेशमात्र भी सम्बन्ध नहीं है। स्मृति अनुभवसिद्ध है? अभ्याससाध्य नहीं है। इसलिये एक बार स्मृति जाग्रत् होनेपर फिर उसकी पुनरावृत्ति नहीं करनी पड़ती।स्मृति भगवान्की कृपासे जाग्रत् होती है। कृपा होती है भगवान्के सम्मुख होनेपर और भगवान्की सम्मुखता होती है संसारमात्रसे विमुख होनेपर। जैसे अर्जुनने कहा कि मैं केवल आपकी आज्ञाका ही पालन करूँगा -- करिष्ये वचनं तव? ऐसे ही संसारका आश्रय छोड़कर केवल भगवान्के शरण होकर कह दे किहे नाथ अब मैं केवल आपकी आज्ञाका ही पालन करूँगा।तात्पर्य है कि इस स्मृतिकी लब्धिमें साधककी सम्मुखता और भगवान्की कृपा ही कारण है। इसलिये अर्जुनने स्मृतिके प्राप्त होनेमें केवल भगवान्की कृपाको ही माना है। भगवान्की कृपा तो मात्र प्राणियोंपर अपारअटूटअखण्डरूपसे है। जब मनुष्य भगवान्के सम्मुख हो जाता है? तब उसको उस कृपाका अनुभव हो जाता है।त्वत्प्रसादात् मयाच्युत पदोंसे अर्जुन कह रहे हैं कि आपने विशेषतासे जो सर्वगुह्यतम तत्त्व बताया? उसकी मुझे विशेषतासे स्मृति आ गयी कि मैं आपका ही था? आपका ही हूँ और आपका ही रहूँगा। यह जो स्मृति आ गयी है? यह मेरी एकाग्रतासे सुननेकी प्रवृत्तिसे नहीं आयी है अर्थात् यह मेरे एकाग्रतासे सुननेका फल नहीं है? प्रत्युत यह स्मृति तो आपकी कृपासे ही आयी है। पहले मैंने शरण होकर शिक्षा देनेकी प्रार्थना की थी और फिर यह कहा था कि मैं युद्ध नहीं करूँगा परन्तु मेरेको जबतक वास्तविकताका बोध नहीं हुआ? तबतक आप मेरे पीछे पड़े ही रहे। इसमें तो आपकी कृपा ही कारण है। मेरेको जैसा सम्मुख होना चाहिये? वैसा मैं सम्मुख नहीं हुआ हूँ परन्तु आपने बिना कारण मेरेपर कृपा की अर्थात् मेरेपर कृपा करनेके लिये आप अपनी कृपाके परवश हो गये? वशीभूत हो गये और बिना पूछे ही आपने शरणागतिकी सर्वगुह्यतम बात कह दी (18। 64 -- 66)। उसी अहैतुकी कृपासे मेरा मोह नष्ट हुआ है।स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव -- अर्जुन कहते हैं कि मूलमें मेरा जो यह सन्देह था कि युद्ध करूँ या न करूँ (न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयः 2। 6)? वह मेरा सन्देह सर्वथा नष्ट हो गया है और मैं अपनी वास्तविकतामें स्थित हो गया हूँ। वह संदेह ऐसा नष्ट हो गया है कि न तो युद्ध करनेकी मनमें रही और न युद्ध न करनेकी ही मनमें रही। अब तो यही एक मनमें रही है कि आप जैसा कहें? वैसा मैं करूँ अर्थात् अब,तो बस? आपकी आज्ञाका ही पालन करूँगा -- करिष्ये वचनं तव। अब मेरेको युद्ध करने अथवा न करनेसे किसी तरहका किञ्चिन्मात्र भी प्रयोजन नहीं है। अब तो आपकी आज्ञाके अनुसार लोकसंग्रहार्थ युद्ध आदि जो कर्तव्यकर्म होगा? वह करूँगा।अब एक ध्यान देनेकी बात है कि पहले कुटुम्बका स्मरण होनेसे अर्जुनको मोह हुआ था। उस मोहके वर्णनमें भगवान्ने यह प्रक्रिया बतायी थी कि विषयोंके चिन्तनसे आसक्ति? आसक्तिसे कामना? कामनासे क्रोध? क्रोधसे मोह? मोहसे स्मृतिभ्रंश? स्मृतिभ्रंशसे बुद्धिनाश और बुद्धिनाशसे पतन होता है (गीता 2। 6263)। अर्जुन भी यहाँ उसी प्रक्रियाको याद दिलाते हुए कहते हैं कि मेरा मोह नष्ट हो गया है और मोहसे जो स्मृति भ्रष्ट होती है? वह स्मृति मिल गयी है -- नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा। स्मृति नष्ट होनेसे बुद्धिनाश हो जाता है? इसके उत्तरमें अर्जुन कहते हैं कि मेरा सन्देह चला गया है -- गतसन्देहः। बुद्धिनाशसे पतन होता है? उसके उत्तरमें कहते हैं कि मैं अपनी स्वाभाविक स्थितिमें स्थित हूँ -- स्थितोऽस्मि। इस प्रकार उस प्रक्रियाको बतानेमें अर्जुनका तात्पर्य है कि मैंने आपके मुखसे ध्यानपूर्वक गीता सुनी है? तभी तो आपने सम्मोहका कहाँ प्रयोग किया है और सम्मोहकी परम्परा कहाँ कही है? वह भी मेरेको याद है। परन्तु मेरे मोहका नाश होनेमें तो आपकी कृपा ही कारण है।यद्यपि वहाँका और यहाँका -- दोनोंका विषय भिन्नभिन्न प्रतीत होता है क्योंकि वहाँ विषयोंके चिन्तन करने आदि क्रमसे सम्मोह होनेकी बात है और यहाँ सम्मोह मूल अज्ञानका वाचक है? फिर भी गहरा विचार किया जाय तो भिन्नता नहीं दीखेगी। वहाँका विषय ही यहाँ आया है।दूसरे अध्यायके इकसठवेंसे तिरसठवें श्लोकतक भगवान्ने यह बात बतायी कि इन्द्रियोंको वशमें करके अर्थात् संसारसे सर्वथा विमुख होकर केवल मेरे परायण होनेसे बुद्धि स्थिर हो जाती है। परन्तु मेरे परायण न होनेसे मनमें स्वाभाविक ही विषयोंका चिन्तन होता है। विषयोंका चिन्तन होनेसे पतन ही होता है क्योंकि यह आसुरीसम्पत्ति है। परन्तु यहाँ उत्थानकी बात बतायी है कि संसारसे विमुख होकर भगवान्के सम्मुख होनेसे मोह नष्ट हो जाता है क्योंकि यह दैवीसम्पत्ति है। तात्पर्य यह हुआ कि वहाँ भगवान्से विमुख होकर इन्द्रियों और विषयोंके परायण होना पतनमें हेतु है और यहाँ भगवान्के सम्मुख होनेपर भगवान्के साथ वास्तविक सम्बन्धकी स्मृति आनेमें भगवत्कृपा ही हेतु है।भगवत्कृपासे जो काम होता है? वह श्रवण? मनन? निदिध्यासन? ध्यान? समाधि आदि साधनोंसे नहीं होता। कारण कि अपना पुरुषार्थ मानकर जो भी साधनोंसे नहीं होता। कारण कि अपना पुरुषार्थ मानकर जो भी साधन किया जाता है? उस साधनमें अपना सूक्ष्म व्यक्तित्व अर्थात् अहंभाव रहता है। वह व्यक्तित्व साधनमें अपना पुरुषार्थ न मानकर केवल भगवत्कृपा माननेसे ही मिटता है।मार्मिक बातअर्जुनने कहा कि मुझे स्मृति मिल गयी -- स्मृतिर्लब्धा। तो विस्मृति किसी कारणसे हुई जीवने असत्के साथ तादात्म्य मानकर असत्की मुख्यता मान ली? इसीसे अपने सत्स्वरूपकी विस्मृति हो गयी। विस्मृति होनेसे इसने असत्की कमीको अपनी कमी मान ली? अपनेको शरीर मानने (मैंपन) तथा शरीरको अपना मानने (मेरापन) के कारण इसने असत् शरीरकी उत्पत्ति और विनाशको अपनी उत्पत्ति और विनाश मान लिया एवं जिससे शरीर पैदा हुआ? उसीको अपनी उत्पादक मान लियाअब कोई प्रश्न करे कि भूल पहले हुई कि असत्का सम्बन्ध पहले हुआ अर्थात् भूलसे असत्का सम्बन्ध हुआ कि असत्के सम्बन्धसे भूल हुई तो इसका उत्तर है कि अनादिकालसे जन्ममरणके चक्करमें पड़े हुए जीवको जन्ममरणसे छुड़ाकर सदाके लिये महान् सुखी करनेके लिये अर्थात् केवल अपनी प्राप्ति करानेके लिये भगवान्ने जीवको मनुष्यशरीर दिया। भगवान्का अकेलेमें मन नहीं लगा -- एकाकी न रमते (बृहदारण्यक 1। 4। 3)? इसलिये उन्होंने अपने साथ खेलनेके लिये मनुष्यशरीरकी रचना की। खेल तभी होता है? जब दोनों तरफके खिलाड़ी स्वतन्त्र होते हैं। अतः भगवान्ने मनुष्यशरीर देनेके साथसाथ इसे स्वतन्त्रता भी दी और विवेक (सत्असत्का ज्ञान) भी दिया। दूसरी बात? अगर इसे स्वतन्त्रता और विवेक न मिलाता? तो यह पशुकी तरह ही होता? इसमें मनुष्यताकी किञ्चिन्मात्र भी कोई विशेषता नहीं होती। इस विवेकके कारण असत्को असत् जानकर भी मनुष्यने मिली हुई स्वतन्त्रताका दुरुपयोग किया और असत्में (संसारके भोग और संग्रहके सुखमें) आसक्त हो गया। असत्में आसक्त होनेसे ही भूल हुई है।असत्को असत् जानकर भी यह उसमें आसक्त क्यों होता है कारण कि असत्के सम्बन्धसे प्रतीत होनेवाले तात्कालिक सुखकी तरफ तो यह दृष्टि रखता है? पर उसका परिणाम क्या होगा? उस तरफ अपनी दृष्टि रखता ही नहीं। (जो परिणामकी तरफ दृष्टि रखते हैं? वे संसारी होते हैं।) इसलिये असत्के सम्बन्धसे ही भूल पैदा हुई है। इसका पता कैसे लगता है जब यह अपने अनुभवमें आनेवाले असत्की आसक्तिका त्याग करके परमात्माके सम्मुख हो जाता है? इससे सिद्ध हुआ कि परमात्मासे विमुख होकर जाने हुए असत्में आसक्ति होनेसे ही यह भूल हुई है।असत्को महत्त्व देनेसे होनेवाली भूल स्वाभाविक नहीं है। इसको मनुष्यने खुद पैद किया है। जो चीज स्वाभाविक होती है? उसमें परिवर्तन भले ही हो? पर उसका अत्यन्त अभाव नहीं होता। परन्तु भूलका अत्यन्त अभाव होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि इस भूलको मनुष्यने खुद उत्पन्न किया है क्योंकि जो वस्तु मिटनेवाली होती है? वह उत्पन्न होनेवाली ही होती है। इसलिये इस भूलको मिटानेका दायित्व भी मनुष्यपर ही है? जिसको वह सुगमतापूर्वक मिटा सकता है। तात्पर्य है कि अपने ही द्वारा उत्पन्न की हुई इस भूलको मिटानेमें मनुष्यमात्र समर्थ और सबल है। भूलको मिटानेकी सामर्थ्य भगवान्ने पूरी दे रखी है। भूल मिटते ही अपने वास्तविक स्वरूपकी स्मृति अपनेआपमें ही जाग्रत् हो जाती है और मनुष्य सदाके लिये कृतकृत्य? ज्ञातज्ञातव्य और प्राप्तप्राप्तव्य हो जाता है।अबतक मनुष्यने अनेक बार जन्म लिया है और अनेक बार कई वस्तुओं? व्यक्तियों? परिस्थितियों? अवस्थाओं? घटनाओं आदिका मनुष्यको संयोग हुआ है परन्तु उन सभीका उससे वियोग हो गया और वह स्वयं वही रहा। कारण कि वियोगका संयोग अवश्यम्भावी नहीं है? पर संयोगका वियोग अवश्यम्भावी है। इससे सिद्ध हुआ कि संसारसे वियोगहीवियोग है? संयोग है ही नहीं। अनादिकालसे वस्तुओं आदिका निरन्तर वियोग ही होता चला आ रहा है? इसलिये वियोग ही सच्चा है। इस प्रकार संसारसे सर्वथा वियोगका अनुभव हो जाना हीयोग है -- तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् (गीता 6। 23)। यह योग नित्यसिद्ध है। स्वरूप अथवा परमात्माके साथ हमारा नित्ययोग है (टिप्पणी प0 998) और शरीरसंसारके साथ नित्यवियोग है। संसारके संयोगकी सद्भावना होनेसे ही वास्तवमें नित्ययोग अनुभवमें नहीं आता। सद्भावना मिटते ही नित्ययोगका अनुभव हो जाता है? जिसका कभी वियोग हुआ ही नहीं।संसारसे संयोग मानना हीविस्मृति है और संसारसे नित्यवियोगका अनुभव होना अर्थात् वास्तवमें संसारके साथ मेरा संयोग था नहीं? होगा नहीं और हो सकता भी नहीं -- ऐसा अनुभव होना हीस्मृति है। सम्बन्ध --  पहले अध्यायके बीसवें श्लोकमें अर्थ पदसे श्रीकृष्णार्जुनसंवादके रूपमें गीताका आरम्भ हुआ था? अब आगेके श्लोकमें इति पदसे उसकी समाप्ति करते हुए सञ्जय इस संवादकी महिमा गाते हैं।
Swami Ramsukhdas
18
73
Hindi
Commentary
।।18.73।।अर्जुन बोला -- हे अच्युत मेरा अज्ञानजन्य मोह? जो कि समस्त संसाररूप अनर्थका कारण था और समुद्रकी भाँति दुस्तर था? नष्ट हो गया है। और हे अच्युत आपकी कृपाके आश्रित होकर मैंने आपकी कृपासे आत्मविषयक ऐसी स्मृति भी प्राप्त कर ली है कि जिसके प्राप्त होनेसे समस्त ग्रन्थियाँ -- संशय विच्छिन्न हो जाते हैं। इस मोहनाशविषयक प्रश्नोत्तरसे यह बात निश्चितरूपसे दिखलायी गयी है कि जो यह अज्ञानजनित मोहका नाश और आत्मविषयक स्मृतिका लाभ है? बस? इतना ही समस्त शास्त्रोंके अर्थज्ञानका फल है। इसी तरह ( छान्दोग्य ) श्रुतिमें भी मैं आत्माको न जाननेवाला शोक करता हूँ इस प्रकार प्रकरण उठाकर आत्मज्ञान होनेपर समस्त ग्रन्थियोंका विच्छेद बतलाया है। तथा हृदयकी ग्रन्थि विच्छिन्न हो जाती है वहाँ एकताका अनुभव करनेवालेको कैसा मोह और कैसा शोक इत्यादि मन्त्रवर्ण भी हैं। अब मैं संशयरहित हुआ आपकी आज्ञाके अधीन खड़ा हूँ। मैं आपका कहना करूँगा। अभिप्राय यह है कि मैं आपकी कृपासे कृतार्थ हो गया हूँ ( अब ) मेरा कोई कर्तव्य शेष नहीं है।
Sri Shankaracharya
18
73
Sanskrit
Commentary
।।18.73।।प्रेमोपदिष्टात्मज्ञानस्य अज्ञानसंदेहविपर्यासरहितस्य पृष्टस्य भगवदनुग्रहप्राप्तिकथनेन भगवन्तं परितोषयिष्यन्नर्जुनो विज्ञापितवानित्याह -- अर्जुन इति। अज्ञानोत्थस्याविवेकस्य नष्टत्वमेव स्पष्टयति -- समस्त इति। स्वयंज्योतिषि प्रतीचि ब्रह्मण्यविद्याभ्रमं विद्यापनयति नाविदितं प्रकाशयतीति मत्वाह -- स्मृतिश्चेति। स्मृतिलाभे किं स्यादिति चेत्तदाह -- यस्या इति। मोहनाशे स्मृतिप्रतिलम्भे चासाधारणं कारणमाह -- त्वत्प्रसादादिति। प्रकृतेन प्रश्नप्रतिवचनेन लब्धमर्थं कथयति -- अनेनेति। यदुक्तं स्मृतिप्रतिलम्भादशेषतो हृदयग्रन्थीनां विप्रमोक्षः स्यादिति तत्र प्रमाणमाह -- तथाचेति। ज्ञानादज्ञानतत्कार्यनिवृत्तौ श्रुत्यन्तरमपि संवादयति -- भिद्यत इति। भगवदनुग्रहादज्ञानकृतमोहदाहानन्तरमात्मज्ञाने प्रतिलब्धे त्वदाज्ञाप्रतीक्षोऽहमित्युत्तरार्धं व्याकरोति -- अथेति। तव वचनं करिष्येऽहमित्यत्र तात्पर्यमाह -- अहमिति।
Sri Anandgiri
18
73
Sanskrit
Commentary
।।18.73।।भगवदनुग्रहात्स्वस्य कृतार्थताकथनेन भगवन्तं परितोषयिष्यन्नर्जुन उवाच। नष्टो मोहोऽज्ञानजन्यः समस्तसंसारहेतुः सागर इव दुस्तरः नष्टः नाशं गतः? स्मृतिश्च त्वत्प्रसादान्मया लब्धा अच्युताभिन्नत्वात्स्वरुपात्कदाप्यप्रच्युतः जरामरणादिवर्जितकर्तृत्वभोक्तृत्वादिविनिर्मुक्त इत्यात्मतत्त्वविषया सर्वग्रन्थ्यादिविप्रमोक्षहेतुभूता स्मृतिर्लब्धेति सूचयन्संबोधयति -- अच्युतेति। स्वयं ज्योतिषि प्रत्यगभिन्ने ब्रह्मण्यविद्याभ्रमं विद्यापनयति नाविदितं प्रकाशयतीति बोधयितुं स्मृतिर्लब्धेत्युक्तं। अज्ञानसंमोहनाशः आत्मस्मृतिप्रतिलाभश्चेत्येतावदेव सर्वशास्त्रज्ञानफलमित्यनेन प्रश्नप्रतिवचनेन निश्चितं दर्शितम्। एतादृशस्य सर्वशास्त्रार्थज्ञानफलस्य संप्राप्तौ तवोपदेशस्य सामर्थ्यमस्तीति लोकोपकारः सम्यक् त्वया संपादित इति गूढाभिसंधिः। आत्मज्ञाने सति सर्वग्रन्थ्यादिविप्रमोहश्च श्रुतावुक्तः। तथाच श्रुतिःभिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः इत्याद्या। अथेदानीं धर्मतत्त्वे च गतसंदेहः मुक्तसंशयः त्वच्छासने स्थितोऽस्मि। तव वचनमहं करिष्ये। त्वत्प्रसादात्कृतार्थस्य मम न किंचित्कर्तव्यमस्तीत्यभिप्रायः।
Sri Dhanpati
18
73
Sanskrit
Commentary
।।18.73।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
Sri Madhavacharya
18
73
Sanskrit
Commentary
।।18.73।।एवं पृष्टः स्वस्य कृतकृत्यतां ज्ञापयन्नर्जुन उवाच -- नष्टो मोह इति। मोहः पूर्वोक्तो द्विविधोऽपि नष्टः। स्मृतिरयमहमस्मि परंब्रह्मेत्यात्मानुसंधानरूपा आत्मतत्त्वविषया लब्धा। यस्य लाभेन सर्वहृदयग्रन्थीनांयावान्यश्चास्मि तत्त्वतः इत्यत्रोदाहृतानां चिज्जडैक्यभ्रमप्रभवानां विमोक्षो भवति। तथा च श्रूयतेवियोगायोग्यस्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः इति। त्वत्प्रसादान्मयाच्युत स्मृतिर्लब्धेति संबन्धः। स्थितोऽस्मि त्वच्छासने इति शेषः। गतसंदेहो नष्टसंदेह इत्यनेनानात्मन्यात्मधीरूपो मोहो नष्ट इति दर्शितम्। करिष्ये वचनं तवेत्यनेन स्वधर्मे युद्धे चाधर्मधीरूपोऽपि मोहो नष्ट इति दर्शितम्।
Sri Neelkanth
18
73
Sanskrit
Commentary
।।18.73।।अर्जुन उवाच -- मोहः विपरीतज्ञान त्वत्प्रसादात् मम तद् विनष्टम्। स्मृतिः यथावस्थिततत्त्वज्ञानं त्वत्प्रसादाद् एव तत् च लब्धम्।अनात्मनि प्रकृतौ आत्माभिमानरूपो मोहः? परमपुरुषशरीरतया तदात्मकस्य कृत्स्नस्य चिदचिद्वस्तुनः अतदात्माभिमानरूपः च? नित्यनैमित्तिकरूपस्य कर्मणः परमपुरुषाराधनतया तत्प्राप्त्युपायभूतस्य बन्धत्वबुद्धिरूपः च? सर्वो विनष्टः। आत्मनः प्रकृतिविलक्षणत्वतत्स्वभावरहितताज्ञातृत्वैकस्वभावतापरमपुरुषशेषतातन्नियाम्यत्वैकस्वरूपताज्ञानम्? भगवतो निखिलजगदुत्पत्तिस्थितिप्रलयलीलाशेषदोषप्रत्यनीककल्याणैकस्वरूपस्वाभाविकानवधिकातिशयज्ञानबलैश्वर्यवीर्यशक्तितेजः प्रभृतिसमस्तकल्याणगुणगणमहार्णवपरब्रह्मशब्दाभिधेयपरमपुरुषयाथात्म्यविज्ञानं च? एवंरूपं परावरतत्त्वयाथात्म्यविज्ञानतदभ्यासपूर्वकाहरहरुपचीयमानपरमपुरुषप्रीत्यैकफलनित्यनैमित्तिककर्मनिषिद्धपरिहारशमदमाद्यात्मगुणनिर्वर्त्यभक्तिरूपतापन्नपरमपुरुषोपासनैकलभ्यो वेदान्तवेद्यः परमपुरुषो वासुदेवः त्वम् इति ज्ञानं च लब्धम्।ततः च बन्धुस्नेहकारुण्यप्रवृद्धविपरीतज्ञानमूलात् सर्वस्माद् अवसादाद् विमुक्तो गतसंदेहः स्वस्थः स्थितः अस्मि। इदानीम् एव युद्धादिकर्तव्यताविषयं तव वचनं करिष्ये यथोक्तं युद्धादिकं करिष्ये इत्यर्थः।धृतराष्ट्राय स्वस्य पुत्राः पाण्डवाः च युद्धे किम् अकुर्वत इति पृच्छते -- संजय उवाच --
Sri Ramanuja
18
73
Sanskrit
Commentary
।।18.73।।कृतार्थः सन्नर्जुन उवाच -- नष्ट इति। आत्मविषयो मोहो नष्टः। यतोऽयमहमस्मीति स्वरूपानुसंधानरूपा स्मृतिस्त्वप्रसादान्मया लब्धा। अतः स्थितोऽस्मि युद्धायोपस्थितोऽस्मि। गतो धर्मविषयः संदेहो यस्य सोऽहं तवाज्ञां करिष्य इति।
Sri Sridhara Swami
18
73
Sanskrit
Commentary
।।18.73।।अथ कृतज्ञतांशं व्यञ्जयन्नर्जुनः श्रुतफलसिद्ध्या प्रतिवक्तिनष्टो मोहः इति। अर्जुनेनास्यार्थस्येतःपूर्वमनवगमाद्वाक्येन प्रथमं स्मृतेरनुदयात्तन्मूलभूतशब्दजन्योऽनुभव इह स्मृतिशब्देन लक्ष्यत इत्याह -- स्मृतिर्यथावस्थिततत्त्वज्ञानमिति।स नो देवः शुभया स्मृत्या संयुनक्तु इत्यस्य मन्त्रस्यस नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्ति(क्तु) [श्वे.उ.3।4] इति शाखान्तरे पाठदर्शनात्स्मृतिबुद्धिशब्दावदूरविप्रकर्षेणेकार्थौ युक्ताविति भावः। निवर्त्यमोहस्वरूपं चोपदेशस्यामूलचूडपरामर्शेन व्यनक्ति -- अनात्मनीत्यादिना। प्रकृतिविलक्षणत्वं स्वप्रकाशत्वादिभिः विकाराद्यभावात्तत्स्वभावरहितता। स्वस्थः प्रकृतिस्थ इत्यर्थः। उपदेशवचनस्य स्वरूपेणाननुष्ठेयत्वात्तेन तत्प्रतिपाद्यं लक्ष्यत इत्याह -- यथोक्तं युद्धादिकमिति।एवं चाभिप्रायः -- आदिशब्देन भक्तियोगपर्यन्तग्रहणम्। अननुष्ठानं तु स्मृतिभ्रंशादिति हि वक्ष्यति -- यत्तु तद्भवता (यत्तद्भगवता) प्रोक्तं पुरा केशव सौहृदात्। तत्सर्वं पुरुषव्याघ्र भ्रष्टं मे नष्टचेतसः [अ.गी.1।6] इति। प्रतिवक्ष्यति च भगवान् -- श्रावितस्त्वं मया गुह्यं ज्ञापितश्च सनातनम्। धर्मं स्वरूपिणं पार्थ सर्वलोकांश्च शाश्वतान्। अबुद्ध्या माग्रहीर्यत्त्वं तन्मे सुमहदप्रियम् [अ.गी.1।910]स हि धर्मः सुपर्याप्तो ब्रह्मणः परिवेदने [अ.गी.1।12] इति।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
18
73
Hindi
Commentary
।।18.73।। अर्जुन स्वीकार करता है कि उसका मोह नष्ट हो गया है। मुझे स्मृति प्राप्त हो गयी है इस वाक्य से यह दर्शाया गया है कि उसके मोह की निवृत्ति भगवान् के उपदेश को केवल अन्धश्रद्धा से ग्रहण कर लेने में नहीं हुई है? वरन् पूर्ण विचार करके प्राप्त ज्ञान से हुई है। उसके अन्दर का वीरत्व जागृत हो गया है और उसका सम्मोहावस्था समाप्त हो गयी है।जब हम गीता दर्शन के वास्तविक अभिप्राय को पूर्णतया समझ लेते हैं? केवल तभी हम में ज्ञान की जागृति होती है और हम अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान पाते हैं। पूर्णत्व तो हमारा आत्मस्वरूप ही है। उसे किसी देशान्तर या कालान्तर में किसी बाह्य शक्ति के हस्तक्षेप की सहायता से प्राप्त नहीं करना है। केवल अज्ञान के कारण हम स्वयं को जीव समझ कर दुख और कष्ट भोग रहे हैं। जीव दशा के कष्टों को भोगते समय भी वस्तुत हम पूर्ण आत्म स्वरूप ही होते हैं। अत आवश्यकता केवल सम्यक् आत्मज्ञान की ही है? आत्मा तो नित्योपलब्ध स्वरूप ही है। मनुष्य का देवत्व जागृत होने से उसके अन्दर का पशुत्व समाप्त हो जाता है।अपूर्ण ज्ञान की स्थिति में ही मन में शोक? मोह? भय? निराशा? दुर्बलता आदि अनेक सन्देह उत्पन्न होते हैं। अब? अर्जुन को पूर्ण ज्ञान होने के कारण वह सन्देह रहित (गतसन्देह) भी हो गया है। आत्मज्ञान की दृष्टि से? युद्धभूमि का पुनर्निरीक्षण एवं पुनर्मूल्यांकन करने पर उसे? अब? अपने कर्तव्य को निश्चित करने में कोई कठिनाई नहीं होती है। वह अपने निर्णय की स्पष्ट घोषणा करता है? मैं आपके आदेश का पालन करूंगा। आत्मस्वरूप श्रीकृष्ण ही विशुद्ध बुद्धि के रूप में व्यक्त होते हैं। अत समस्त साधकों को अपने अहंकार का त्याग करके अपनी विशुद्ध बुद्धि के निर्णयों का सदैव पालन करना चाहिए। यही आध्यात्मिक जीवन का प्रारम्भ है? और समापान भी।यहाँ गीताशास्त्र की परिसमाप्ति होती है। अब? गीताचार्य और गीता की स्तुति करते हुए तथा महाभारत की कथा का संबंध बताते हुए
Swami Chinmayananda
18
73
Hindi
Translation
।।18.73।।अर्जुन बोले -- हे अच्युत ! आपकी कृपासे मेरा मोह नष्ट हो गया है और स्मृति प्राप्त हो गयी है। मैं सन्देहरहित होकर स्थित हूँ। अब मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगा।
Swami Ramsukhdas
18
73
Hindi
Translation
।।18.73।। अर्जुन ने कहा -- हे अच्युत ! आपके कृपाप्रसाद से मेरा मोह नष्ट हो गया है, और मुझे स्मृति (ज्ञान) प्राप्त हो गयी है? अब मैं संशयरहित हो गया हूँ और मैं आपके वचन (आज्ञा) का पालन करूँगा।।
Swami Tejomayananda
18
73
Sanskrit
Commentary
।।18.73।।नष्ट इति। नष्टो मोह इत्यादिना युद्धप्रवृत्तिस्तावदर्जुनस्योत्पन्ना? न तु सम्यग्ब्रह्मवित्त्वं जातम् इति सूचयन् भाविनोऽनुगीतार्थस्यावकाशं ददाति।
Sri Abhinavgupta
18
73
Sanskrit
Commentary
।।18.73।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
Sri Jayatirtha
18
73
Sanskrit
Commentary
।।18.73।।एवं पृष्टः कृतार्थत्वेन पुनरुपदेशानपेक्षतामात्मन अर्जुन उवाच -- नष्टो मोह इति। नष्ट उच्छिन्नो मोहोऽज्ञानकृतो विपर्ययः तन्नाशकमाह। स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मया यस्मात्त्वदुपदेशादात्मज्ञानं लब्धं सर्वसंशयानाक्रान्ततया प्राप्तमतः सर्वप्रतिबन्धशून्येनात्मज्ञानेन मोहो नष्ट इत्यर्थः। हेऽच्युत? आत्मत्वेन निश्चितत्वात्वियोगायोग्यस्मृतिलम्भने सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः इति श्रुत्यर्थमनुभवन्नाह -- स्थितोऽस्मीति। स्थितोस्मि गतसंदेहो निवृत्तसर्वसंदेहः स्थितोऽस्मि युद्धकर्तव्यतारूपे त्वच्छासने। यावज्जीवं च करिष्ये वचनं तव भगवतः परमगुरोराज्ञां पालयिष्यामीति प्रयाससाफल्यकथनेन भगवन्तमर्जुनः परितोषयामास। अनेन गीताशास्त्राध्यायिनो भगवत्प्रसादादवश्यं मोक्षफलपर्यन्तं ज्ञानं भवतीति शास्त्रफलमुपसंहृतं तद्धास्य विजज्ञावितिवत्।
Sri Madhusudan Saraswati
18
73
Sanskrit
Commentary
।।18.73।।एवं प्रश्ने नष्टमोहः सन् अर्जुन उत्तरं प्राह -- नष्टो मोह इति। अज्ञानकृतो मोहो नष्टः? त्वदुक्ितश्रवणेनेति शेषः। अधिकमपि जातं हे अच्युत सर्वत्र च्युतिरहित मया अहङ्काराज्ञानसहितेन त्वत्प्रसादात् स्मृतिः तत्स्वरूपात्मिका लब्धा प्राप्ता।प्रसादात् इति कथनेन साधनालभ्यतोक्ता। अहो दासस्य प्रभ्वाज्ञाकरणमेव धर्मः? न त्वन्योऽपि धर्माधर्मविचारः। एवं गतसन्देहः संस्तवाग्रे दासत्वेन स्थितोऽस्मि इदानीं,तव वचनं पूर्वोक्तं युद्धादिरूपं सर्वधर्मत्यागरूपं त्वद्भक्तेष्वेतदुपदेशरूपं च करिष्ये।
Sri Purushottamji
18
73
Sanskrit
Commentary
।।18.73।। -- नष्टः मोहः अज्ञानजः समस्तसंसारानर्थहेतुः? सागर इव दुरुत्तरः। स्मृतिश्च आत्मतत्त्वविषया लब्धा? यस्याः लाभात् सर्वहृदयग्रन्थीनां विप्रमोक्षः त्वत्प्रसादात् तव प्रसादात् मया त्वत्प्रसादम् आश्रितेन अच्युत। अनेन मोहनाशप्रश्नप्रतिवचनेन सर्वशास्त्रार्थज्ञानफलम् एतावदेवेति निश्चितं दर्शितं भवति? यतः ज्ञानात् मोहनाशः आत्मस्मृतिलाभश्चेति। तथा च श्रुतौ अनात्मवित् शोचामि (छा0 उ0 7।1।3) इति उपन्यस्य आत्मज्ञानेन सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः उक्तः भिद्यते हृदयग्रन्थिः (मु0 उ0 2।2।8) तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः (ई0 उ0 7) इति च मन्त्रवर्णः। अथ इदानीं त्वच्छासने स्थितः अस्मि गतसंदेहः मुक्तसंशयः। करिष्ये वचनं तव। अहं त्वत्प्रसादात् कृतार्थः? न मे कर्तव्यम् अस्ति इत्यभिप्रायः।।परिसमाप्तः शास्त्रार्थः। अथ इदानीं कथासंबन्धप्रदर्शनार्थं संजयः उवाच --,संजय उवाच --,
Sri Shankaracharya
18
73
Sanskrit
Commentary
।।18.73।।अर्जुन उवाच -- नष्टो मोह इति। विपरीतं ज्ञानं आत्मानात्माविवेकविषयकं विनष्टं मम। स्मृतिश्च यथावस्थितत्त्वज्ञानं त्वत्प्रसादाल्लब्धा। तत्रानात्मनि प्रकृतितत्कार्ये स्वात्माभिमानरूपो मोहः परमपुरुषस्वरूपतया तदात्मकस्य सर्वस्य चिदचिद्वस्तुनः अतदात्माभिमानरूपश्च नित्यादिकर्मणो भगवदर्थतया तत्प्राप्त्युपायभूतस्य बन्धकत्वावगतिरूपश्च सर्वो नष्टः। आत्मनः प्राकृतस्वभावरहितज्ञातृत्वैकस्वरूपज्ञानं तथा परमात्मनोऽक्षरब्रह्मैक्यज्ञानं तदुत्तमस्य पुरुषोत्तमस्यालौकिकगुणगणस्य प्रभोग्नुग्रहभक्त्यैव प्राप्तिः परमपुरुषार्थः। स च वासुदेवः पुरुषोत्तमस्त्वमिति ज्ञानं च स्मृतिरूपं लब्धं? त्वत्प्रसादान्मोहः साङ्ख्योपदेशेन गतः? स्मृतिर्योगोपदेशेन लब्धा। प्रसादो भक्तिरिति वा। अतो गतसन्देहस्तव वचनं युद्धादिकर्तव्यताविषयं करिष्ये।
Sri Vallabhacharya
18
73
English
Commentary
18.73 नष्टः is destroyed, मोहः delusion, स्मृतिः memory (knowledge), लब्धा has been gained, त्वत्प्रसादात् through Thy grace, मया by me, अच्युत O Krishna, स्थितः अस्मि I remain, गतसन्देहः freed from doubts, करिष्ये (I) will do, वचनम् word, तव Thy.Commentary: Moha Delusion This is the strongest weapon of Maya to take the Jivas in Her clutch. It is born of ignorance. It is the cause of the whole evil of Samsara. It is as hard to cross as the ocean.Smritih I have attained knowledge of the true nature of the Self. The whole aim of Sadhana or spiritual practice and the study of scriptures is the annihilation of delusion and the attainment of the knowledge of the Self. When one gets it, the three knots or ties of ignorance, viz., ignorance, delusion (desire) and action are destroyed, all the doubts are cleared, and all the Karmas are destroyed.To him who beholds the Self in all beings, what delusion is there, what grief (Isavasya Upanishad, 7)I shall do Thy word Arjuna means to say, I am firm in Thy command. Through Thy grace I have achieved the end of life. I have nothing more to do.
Swami Sivananda
18
73
English
Translation
18.73 Arjuna said Destroyed is my delusion and I have, by your grace, O Krsna, gained knowledge (Smrti). Freed from doubts, I stand steadfast, I will fulfil Your world.
Swami Adidevananda
18
73
English
Translation
18.73 Arjuna said O Acyuta, (my) delusion has been destroyed and memory has been regained by me through Your grace. I stand with my doubt removed; I shall follow Your instruction.
Swami Gambirananda
18
73
English
Translation
18.73 Arjuna said Destroyed is my delusion as I have gained my knowledge (memory) through Thy grace, O Krishna. I remain freed from doubts. I will act according to Thy word.
Swami Sivananda
18
73
English
Commentary
18.73 O Acyuta, (my) mohah, born of ignorance and the cause of all evil in the form of mundane existence, and difficult to cross like an ocean;l nastah has been destroyed. And smrtih, memory, regarding the reality of the Self-on the acisition of which follows the loosening of all the bonds; labdha, has been regained, tvat-prasadat, through Your grace maya, by me, who am dependent on Your grace. By this estion about the destruction of delusion and the answer to it, it becomes conclusively revealed that the fruit derived from understanding the import of the entire Scripture is this much alone-which is the destruction of delusion arising from ignorance and the regaining of the memory about the Self. And similarly, in the Upanisadic text beginning with 'I grieve because I am not a knower of the Self' (Ch. 7.1.3), it is shown that all bonds become destroyed when the Self is realized. There are also the words of the Upanisadic verses, 'The knot of the heart gets untied' (Mu. 2.2.8); 'at that time (or to that Self) what delusion and what sorrow can there be for that seer of oneness?' (Is.7). Now then, sthitah, asmi, I stand under Your ?nd; gata-sandehah, with (my) doubts removed. Karisye, I shall follow; tava, Your; vacanam, instruction. By Your grace I have achieved the goal of life. The idea is, there is no duty, as such, for me. The teaching of the Scripture is concluded. There-after, now in order to show the connection (of this) with the (main) narrative-.
Sri Shankaracharya
18
73
English
Commentary
18.73 Nastah etc. By the passage '[My] delusion is destroyed etc', it is indicated that [after hearing the Lord's instruction], only an inclination to fight has risen in Arjuna, but the perfect realisation of the Brahman is not yet born in him. While indicating so, [the sage Vyasa] provides a scope for the would-be subject matter for the Anugita.
Abhinavgupta
18
73
English
Commentary
18.73 Arjuna said 'Delusion' or misapprehension is perverted knowledge. By Your grace it has been destroyed. 'Smrti' or memory is the knowledge of things as they really are. I have acired that. Misapprehension here is the misconception that the self is the Prakrti (body-mind) which is the non-self in reality. It consists in one not apprehending that all intelligent and non-intelligent entities, by reason of their forming the body of the Supreme Being, have Him as their Atman and are thus ensouled by Him. The misapprehension also consists in the lack of knowledge that actions, obligatory and occasional, do not cause bondage but actually form a means for the propitiation of the Supreme Being. All such misapprehensions are now destroyed. The various phases of knowledge that cleared the misunderstanding may be catalogued as follows: (1) The self is different from Prakrti and is therefore devoid of the alities of Prakrti. Its nature is that of the knower of Prakrti. (2) The self is a Sesa (sub-ordinate and servant) of the Supreme Person and is ruled by Him. The true knowledge about the Supreme Person is that He is what is signified by the expression Supreme Brahman. (3) He is the great ocean of all auspicious, excellent attributes such as knowledge, strength, glory, valour, power, brilliance etc., which are unbounded and natural. His essence consists solely of auspiciousness. He is antagonistic to all that is evil without exception. The origin, sustentation and dissolution of the entire universe are His sport. (4) You (Sri Krsna) are Vasudeva, the Supreme Person, known from the Vedanta, and who can be reached only by worship, which has taken the form of Bhakti. (5) Bhakti can be achieved by the control of the senses and the mind, the abandonment of prohibited acts and the performance of occasional and obligatory acts as solely intended for the goal of the satisfaction of the Supreme Person. Bhakti has to be developed day after day through the regular practice of the discriminatory knowledge of the higher and lower truths. All this has been attained by me (Arjuna). Therefore I stand steadfast, freed from the doubts and devoid of the depression rooted in perverted knowledge nourished by compassion and love for relatives. Now I shall fulfil Your words, concerned with fighting etc., which ought to be done by me. I shall fight as instructed by You. Such is the meaning. Sanjaya now relates to Dhrtarastra who had estioned him earlier as to what his sons and the Pandavas were doing in the battle:
Ramanuja
18
73
English
Translation
18.73. Arjuna said My delusion is destroyed; recollection is gained by me through your Grace, O Acyuta ! I stand firm, free of doubts; I shall excute your ?nd.
Dr. S. Sankaranarayan
18
73
English
Translation
18.73 Arjuna replied: My Lord! O Immutable One! My delusion has fled. By Thy Grace, O Changeless One, the light has dawned. My doubts are gone, and I stand before Thee ready to do Thy will."
Shri Purohit Swami
18
74
Sanskrit
original
सञ्जय उवाचइत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्।।18.74।।
null
18
74
Hindi
Commentary
।।18.74।। व्याख्या --   इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः -- सञ्जय कहते हैं कि इस तरह मैंने भगवान् वासुदेव और महात्मा पृथानन्दन अर्जुनका यह संवाद सुना? जो कि अत्यन्त अद्भुत? विलक्षण है और इसकी यादमात्र हर्षके मारे रोमाञ्चित करनेवाली है।यहाँ इति पदका तात्पर्य है कि पहले अध्यायके बीसवें श्लोकमें अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः पदोंसे सञ्जय श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवादरूप गीताका आरम्भ करते हैं और यहाँ इति पदसे उस संवादकी समाप्ति करते हैं।अर्जुनके लिये महात्मनः विशेषण देनेका तात्पर्य है कि अर्जुन कितने महान् विलक्षण पुरुष हैं? जिनकी आज्ञाका पालन स्वयं भगवान् करते हैं अर्जुन कहते हैं कि हे अच्युत मेरे रथको दोनों सेनाओंके बीचमें खड़ा कर दो (गीता 1। 21)? तो भगवान् दोनों सेनाओंके बीचमें रथको खड़ा कर देते हैं (गीता 1। 24)। गीतामें अर्जुन जहाँजहाँ प्रश्न करते हैं? वहाँवहाँ भगवान् बड़े प्यारसे और बड़ी विलक्षण रीतिसे प्रायः विस्तारपूर्वक उत्तर देते हैं। इस प्रकार महात्मा अर्जुनके और भगवान् वासुदेवके संवादको मैंने सुना है।संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् -- इस संवादमें अद्भुत और रोमहर्षणपना क्या है शास्त्रोंमें प्रायः ऐसी बात आती है कि संसारकी निवृत्ति करनेसे ही मनुष्य पारमार्थिक मार्गपर चल सकता है और उसका कल्याण हो सकता है। मनुष्योंमें भी प्रायः ऐसी ही धारण बैठी हुई है कि घर? कुटुम्ब आदिको छोड़कर साधुसंन्यासी होनेसे ही कल्याण होता है। परन्तु गीता कहती है कि कोई भी परिस्थिति? अवस्था? घटना? काल आदि क्यों न हो? उसीके सदुपयोगसे मनुष्यका कल्याण हो सकता है। इतना ही नहीं? वह परिस्थिति बढ़ियासेबढ़िया हो या घटियासेघटिया? सौम्यसेसौम्य हो या घोरसेघोर विहित युद्धजैसी प्रवृत्ति हो? जिसमें दिनभर मनुष्योंका गला काटना पड़ता है? उसमें भी मनुष्यका कल्याण हो सकता है? मुक्ति हो सकती है (टिप्पणी प0 999)। कारण कि जन्ममरणरूप बन्धनमें संसारका राग ही कारण है (गीता 13। 21)। उस रागको मिटानेमें परिस्थितिका सदुपयोग करना ही हेतु है अर्थात् जो पुरुष परिस्थितिमें रागद्वेष न करके अपने कर्तव्यका पालन करता है? वह सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है (गीता 5। 3)। यही इस संवादमें अद्भुतपना है।भगवान्का स्वयं अवतार लेकर मनुष्यजैसा काम करते हुए अपनेआपको प्रकट कर देना औरमेरी शरणमें आ जा यह अत्यन्त गोपनीय रहस्यकी बात कह देना -- यही संवादमें रोमहर्षण करनेवाला? प्रसन्न करनेवाला? आनन्द देनेवाला है। सम्बन्ध --  पारमार्थिक मार्गमें सच्चे साधकको जिसकिसीसे लाभ होता है? उसकी वहि कृतज्ञता प्रकट करता ही है। अतः सञ्जय भी आगेके तीन श्लोकोंमें व्यासजीकी कृतज्ञता प्रकट करते हैं।
Swami Ramsukhdas
18
74
Hindi
Commentary
।।18.74।।शास्त्रका अभिप्राय समाप्त हो चुका। अब कथाका सम्बन्ध दिखलानेके लिये संजय बोला --, इस प्रकार मैंने यह उपर्युक्त अद्भुत -- अत्यन्त विस्मयकारक रोमाञ्च करनेवाला श्रीवासुदेव भगवान् और महात्मा अर्जुनका संवाद सुना।
Sri Shankaracharya
18
74
Sanskrit
Commentary
।।18.74।।शास्त्रार्थे समाप्ते सत्यस्यामवस्थायां संजयवचनं कुत्रोपयुक्तमिति तदाह -- परिसमाप्त इति। वासुदेवस्य सर्वज्ञस्य सर्वेश्वरस्य कृतार्थस्य पार्थस्य पृथासुतस्यार्जुनस्य महात्मनोऽक्षुद्रबुद्धेः सर्वाधिकारिगुणसंपन्नस्य सम्यञ्चं वादं संवादं गुरुशिष्यभावेन प्रश्नप्रतिवचनाभिधानमिममनुक्रान्तमद्भुतं विस्मयकरं रोमाणि हृष्यन्ति पुलकीभवन्त्यनेनेति रोमहर्षणमाह्लादकं यथोक्तं श्रुतवानस्मीत्याह -- इत्येवमिति।
Sri Anandgiri
18
74
Sanskrit
Commentary
।।18.74।।परिसमाप्तः कृष्णपार्थसंवादात्मकः शास्त्रार्थोऽथेदानीं कथासंबन्धप्रदर्शनार्थं संजय उवाच -- इत्यहं वासुदेवस्य सर्वात्मनः सर्वज्ञस्य सर्वेश्वरस्य पार्थस्य पृथापुत्रस्य च महात्मनोऽक्षुद्रस्वभावस्य भगवदनुग्रहीतस्य सभ्यग्वांद संवादं गुरुशिष्यवचनेन प्रश्नप्रतिवचनाभिधानमिमं त्वां प्रत्युक्तं अद्भुतमत्यन्तविस्मयकरं रोमाणि हृष्यन्ति पुलकीभवन्त्यनेनेति रोमहर्षणं हर्षनिमित्तकरोमाञ्चकरं अश्रौषं श्रुतवानस्मि। अतिधन्यो वसुदेवो यद्गृहे स्वयं भगवानतीर्णः? पृथा च धन्या यस्याः पुत्रः परमभागवतो भगवदनुगृहीतः ध्वनितम्।
Sri Dhanpati
18
74
Sanskrit
Commentary
।।18.74।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
Sri Madhavacharya
18
74
Sanskrit
Commentary
।।18.74।।समाप्तः शास्त्रार्थः। इदानीं कथाप्रबन्धमेवानुवर्तयन्संजय उवाच -- इतीति। अद्भुतं चेतसो विस्मयकरम्। रोमहर्षणं रोमाञ्चोद्भेदजनकम्। शेषं स्पष्टम्।
Sri Neelkanth
18
74
Sanskrit
Commentary
।।18.74।।संजय उवाच -- इति एवं वासुदेवस्य वसुदेवसूनोः पार्थस्य च तत्पितृष्वसुः पुत्रस्य च महात्मनो महाबुद्धेः तत्पदद्वन्द्वम् आश्रितस्य इमं रोमहर्षणम् अद्भुतं संवादम् अहं यथोक्तम् अश्रौषं श्रुतवान् अहम्।
Sri Ramanuja
18
74
Sanskrit
Commentary
।।18.74।।तदेवं धृतराष्ट्रं प्रति श्रीकृष्णार्जुनसंवादं कथयित्वा प्रस्तुतां कथामनुसंदधानः संजय उवाच -- इतीति। रोमहर्षणं रोमाञ्चकरं संवादमश्रौषं श्रुतवानहम्। स्पष्टमन्यत्।
Sri Sridhara Swami
18
74
Sanskrit
Commentary
।।18.74।।मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय [1।1] इति प्रश्ने कृत्स्नं सङ्गमयतीत्याह -- धृतराष्ट्रायेति।महात्मनः इत्युक्तं व्यनक्ति -- तत्पदद्वन्द्वमाश्रितस्येति।कृष्णाश्रयाः कृष्णबलाः कृष्णनाथाश्च पाण्डवाः इति ह्यन्यत्रोक्तम्। अत्रचशिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् [2।7] इति। अद्भुतत्वातिशयाद्रोमहर्षणत्वम्।यथोक्तमश्रौषमिति -- यथा ताभ्यामुक्तं? तत्र ममाश्रुतांशो नास्तीत्यर्थः। एतेन यथार्थदर्शित्वं व्यञ्जितम्। यद्वा यथा तव मयोक्तम्? एवमेव श्रुतवानस्मि? ततश्च यथादृष्टार्थवादित्वं व्यञ्जितं भवति।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
18
74
Hindi
Commentary
।।18.74।। गीतोपदेश का प्रारम्भ होने के पूर्व? अर्जुन ने कहा था? मैं युद्ध नहीं करूंगा। और? उपदेश की समाप्ति पर उसने? पूर्व श्लोक में? यह घोषणा की? मैं आपके वचन का पालन करूंगा। इस प्रकार रोग का उपचार पूर्ण हुआ और उसके साथ ही गीताशास्त्र की परिसमाप्ति होती है। इस सन्दर्भ में? ईसामसीह के कथन का स्मरण होता है। प्राणदण्ड की शूली को ढोते हुए वे जा रहे थे लोगों की व्यंगोक्तियों से क्षणभर के लिये वे अर्जुन की स्थिति में पहुंच गये। परन्तु? तत्काल मोह मुक्त होकर उन्होंने घोषणा की हे प्रभु आपकी इच्छा पूर्ण होगी। अर्जुन के और ईसामसीह के वाक्यों में कितनी साम्यता है।मैंने भगवान् वासुदेव और अर्जुन का संवाद सुना अध्यात्म की सांकेतिक भाषा के अनुसार वासुदेव का अर्थ है? सर्वव्यापी चैतन्यस्वरूप आत्मा तथा पार्थ का अर्थ है? जड़ उपाधियों से तादात्म्य किया जीव। जब यह जीव इस मिथ्या तादात्म्य का परित्याग कर देता है? तब वह अपने शुद्ध आत्मस्वरूप का साक्षात्कार करता है। आत्मानात्म के विवेक की कला ही गीताशास्त्र का प्रतिपाद्य विषय है।अद्भुत श्रीकृष्णार्जुन के संवाद रूप में श्रवण किये गये तत्त्वज्ञान को? संजय? अद्भुत और विस्मयकारी विशेषण देता है। सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा ग्राह्य होने के कारण कोई भी दर्शनशास्त्र आश्चर्यमय नहीं होता है। परन्तु गीता के तत्त्वज्ञान की अद्भुतता भी कुछ अपूर्व ही है। जो अर्जुन पूर्णतया विघटित और विखण्डित हो चुका था? वही अर्जुन इस ज्ञान को प्राप्त कर सुगठित? पूर्ण और शक्तिशाली बन गया। यह एक उदाहरण ही गीता की कल्याणकारी शक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण है। इसी कारण गीता को एक अनन्य और अलौकिक आभा प्राप्त हुई है।गीता में यह स्पष्ट किया गया है कि मनुष्य अपनी परिस्थितियों का स्वामी है? दास नहीं। उसमें स्वामित्व की यह क्षमता पहले से ही विद्यमान है। जब यह सत्य उद्घाटित किया जाता है? तब संजय के लिए यह स्वाभाविक है कि वह आनन्दविभोर होकर इसे अद्भुत कह उठे।महात्मा अर्जुन संजय इस श्लोक में अर्जुन को गौरवान्वित करता है? पार्थसारथि भगवान् श्रीकृष्ण को नहीं। भाव यह है कि यदि कोई छोटा बालक कठिन काम करके दिखाता है? तो वह स्तुति और अभिनन्दन का पात्र होता है। परन्तु वही कार्य कोई नवयुवक कर के दिखाये? तो उसमें कोई विशेष आश्चर्य की बात नहीं होती। इसी प्रकार? सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान भगवान् श्रीकृष्ण के लिए गीता का उपदेश देना बच्चों का खेल है? जबकि मोह और भ्रम में फँसे हुए अर्जुन का उस स्थिति से बाहर निकल कर आना? वास्तव में एक उपलब्धि है। उसका यह साहस और वीरत्व प्रशंसनीय है।संजय की सहानुभूति सदैव पाण्डवों के साथ ही थी। परन्तु वह धृतराष्ट्र का नमक खा रहा था? इसलिए अपने स्वामी के साथ निष्ठावान रहना उसका कर्तव्य था। उस समय की राजनीति के अनुसार केवल धृतराष्ट्र ही इस युद्ध को रोक सकता था और? इसलिए? संजय यथासंभव सूक्ष्म संकेत करता है कि अर्जुन पुन अपनी वीरतपूर्ण स्थिति में आ गया है? जिसका परिणाम होगा धृतराष्ट्र के एक सौ पुत्रों का विनाश? वृद्धावस्था में पुत्रवियोग की पीड़ा और असम्मान का कलंकित जीवन। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि लड़खड़ाते धृतराष्ट्र की अन्धता केवल नेत्रों की ही नहीं? वरन् मन और बुद्धि की भी थी? क्योंकि संजय के अनुनय विनय के नैतिक संकेतों का उस अन्ध राजा के बधिर कानों पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता है।महर्षि वेदव्यास के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित करते हुए संजय कहता है
Swami Chinmayananda
18
74
Hindi
Translation
।।18.74।।सञ्जय बोले -- इस प्रकार मैंने भगवान् वासुदेव और महात्मा पृथानन्दन अर्जुनका यह रोमाञ्चित करनेवाला अद्भुत संवाद सुना।
Swami Ramsukhdas
18
74
Hindi
Translation
।।18.74।। संजय ने कहा -- इस प्रकार मैंने भगवान् वासुदेव और महात्मा अर्जुन के इस अद्भुत और रोमान्चक संवाद का वर्णन किया।।
Swami Tejomayananda
18
74
Sanskrit
Commentary
।।18.74 -- 18.78।।इत्यहमित्यादि मतिर्ममेत्यन्तम्। संजयवचनेन संवादमुपसंहरन एतदर्थस्य गाढप्रबन्धक्रमेण निरन्तरचिन्तासन्तानोपकृतनैरन्तर्यादेव चान्ते सुपरिस्फुटनिर्विकल्पानुभवरूपतामापाद्यमानं स्मरणमात्रमेव परब्रह्मप्रदायकम् इत्युच्यते। एवं भगवदर्जुनसंवादमात्रस्मरणादेव तत्त्वावाप्त्या ( S? ,तत्त्वव्याप्त्या ) श्रीविजयविभूतय इति।।।शिवम्।।अत्र संग्रहश्लोकः -- भङ्क्त्वाऽज्ञानविमोहमन्थरमयीं सत्त्वादिभिन्नां धियं प्राप्य स्वात्मविबोधसुन्दरतया ( K स्वात्मविभूत -- ) विष्णुं विकल्पातिगम्।यत्किञ्चित् स्वरसोद्यदिन्द्रियनिजव्यापारमात्रस्थिते ( तो ) हेलातः कुरुते तदस्य सकलं संपद्यते शंकरम्।।।।इति श्रीमहामाहेश्वराचार्यवर्यराजानकाभिनवगुप्तपादविरचिते श्रीमद्भगवद्गीतार्थसंग्रहे अष्टादशोऽध्यायः।।[ आचार्यप्रशस्तिः ] श्रीमान् ( S श्रीमत्कात्यायनो -- ) कात्यायनोऽभूद्वररुचिसदृशः प्रस्फुरद्बोधतृप्त स्तद्वंशालंकृतो यः स्थिरमतिरभवत् सौशुकाख्योऽतिविद्वान्।विप्रः श्रीभूतिराजस्तदनु समभवत् तस्य सूनुर्महात्मा येनामी सर्वलोकास्तमसि निपतिताः प्रोद्धृतता भानुनेव।।1।।तच्चरणकमलमधुपो भगवद्गीतार्थसङ्ग्रहं व्यदधात्।अभिनवगुप्तः सद्द्विज लोटककृतचोदनावशतः ( S लोठककृत -- ?N लोककृत)।।2।।अत इयमयथार्थं वा यथार्थमपि सर्वथा नैव।विदुषामसूयनीयं कृत्यमिदं बान्धवार्थं हि।।3।।अभिनवरूपा शक्ति स्तद्गुप्तो यो महेश्वरो देवः।तदुभयथामलरूपम् ( ? K? S तदुभययामल -- ) अभिनवगुप्तं शिवं वन्दे।।4।।परिपूर्णोऽयं ( This verse is given differently in different Mss. S परिपूर्णोऽयं गीतार्थसंग्रहः।कृतिस्त्रिनयनचरणचिन्तनलब्धप्रसिद्धेश्श्रीमदभिनवगुप्तस्य।? N? K अत इत्ययमर्थसंग्रहः। [ N substitutes this sentence with परिपूर्णोऽयं श्रीमद्भगवद्गीतार्थसंग्रहः। ] कृतिश्चेयं परमेश्वरचरण [ K adds सरोरुह ] चिन्तन लब्धचिदात्मसाक्षात्काराचार्याभिनवगुप्तपादानाम्। ) श्रीमद् भगवद्गीतार्थसंग्रहः [ सु ] कृतिः।त्रिणयनचरण [ वि ] चिन्तन लब्धप्रसिद्धेरभिनवगुप्तस्य।।5।।।।इति शिवम्।।
Sri Abhinavgupta
18
74
Sanskrit
Commentary
।।18.74।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
Sri Jayatirtha
18
74
Sanskrit
Commentary
।।18.74।।समाप्तः शास्त्रार्थः। कथासंबन्धमिदानीमनुसंदधानः संजय उवाच -- इत्यहमिति। अद्भुतं चेतसो विस्मयाख्यविकारकरं लोकेष्वसंभाव्यमानत्वात् लोमहर्षणं शरीरस्य रोमाञ्चाख्यविकारकरं तेनातिपरिपुष्टत्वं विस्मयस्य दर्शितं स्पष्टमन्यत्।
Sri Madhusudan Saraswati
18
74
Sanskrit
Commentary
।।18.74।।एवं धृतराष्ट्रपृष्टश्रीकृष्णार्जुनसंवादं सफलमशेषतः कथयित्वा भगवति सासूयत्वात् धृतराष्ट्रस्य फलाभावकथनार्थं स्वस्य च तदग्रे कथनावश्यकत्वाय स्वस्य श्रवणानन्दभवनकारणज्ञापनाय स्तुतकथानुसन्धानेन सञ्जय उवाच -- इतीति। इति अमुना प्रकारेण अहं त्वदीयत्वेन द्वेषसम्बन्धयुक्तोऽपि वासुदेवस्य मोक्षदातुः महात्मनो भगवद्भक्तस्य पार्थस्य च इमं मया पूर्वोक्तं संवादम् उत्तरप्रत्युत्तररूपं अद्भुतम्? अलौकिकं रोमहर्षणं रोमहर्षकरम् आनन्दोद्बोधकं अश्रौषं श्रुतवानस्मि।
Sri Purushottamji
18
74
Sanskrit
Commentary
।।18.74।। --,इति एवम् अहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः संवादम् इमं यथोक्तम् अश्रौषं श्रुतवान् अस्मि अद्भुतम् अत्यन्तविस्मयकरं रोमहर्षणं रोमाञ्चकरम्।।तं च इमम् --,
Sri Shankaracharya
18
74
Sanskrit
Commentary
।।18.74।।तदेवं धृतराष्ट्रं प्रति श्रीकृष्णार्जुनसंवादमुक्त्वा प्रस्तुतकथामनुसन्दधानः सञ्जय उवाच --,इत्यहमिति। उभयोः संवादमिममश्रौषम्।
Sri Vallabhacharya
18
74
English
Commentary
18.74 इति thus, अहम् I, वासुदेवस्य of Krishna, पार्थस्य of Arjuna, च and, महात्मनः highsouled, संवादम् dialogue, इमम् this, अश्रौषम् (I) have heard, अद्भुतम् wonderful, रोमहर्षणम् which causes the hair to stand on end.Commentary: Wonderful because it deals with Yoga and transcendental spiritual matters that pertain to the mysterious immortal Self.Whenever good, higher emotions manifest themselves in the heart the hair stands on end. Devotees often experience this horripilation.
Swami Sivananda
18
74
English
Translation
18.74 Sanjaya said Thus have I heard this wondrous dialogue between Vasudeva and the great-minded Arjuna, which makes my hair stand on end.
Swami Adidevananda
18
74
English
Translation
18.74 Sanjaya said I thus heard this conversation of Vasudeva and of the great-souled Partha, which is unie and makes one's hair stand on end.
Swami Gambirananda
18
74
English
Translation
18.74 Sanjaya said Thus I have heard this wonderful dialogue between Krishna and the high-souled Arjuna, which causes the hair to stand on end.
Swami Sivananda
18
74
English
Commentary
18.74 Aham, I; iti, thus; asrausam, heard; imam, this; samvadam, conversation, as has been narrated; vasudevasya, of Vasudeva; and mahatmanah, parthasya, of the great-soulded Partha; which is adbhutam, unie, extremely wonderful; and roma-harsanam, makes one's hair stand on end.
Sri Shankaracharya
18
74
English
Commentary
18.74 See Comment under 18.78
Abhinavgupta
18
74
English
Commentary
18.74 Sanjaya said Thus, in this way have I been hearing, this wondrous and thrilling dialogue, as it took place between Vasudeva, the son of Vasudeva, and His paternal aunt's son Arjuna, who is a Mahatman, one possessed of a great intelligence, and who has resorted to the feet of Sri Krsna.
Ramanuja
18
74
English
Translation
18.74. Sanjaya said Thus I have heard this wonderful and thrilling dailogue of Vasudeva and the mighty-minded son of Prtha.
Dr. S. Sankaranarayan
18
74
English
Translation
18.74 Sanjaya told: "Thus have I heard this rare, wonderful and soul-stirring discourse of the Lord Shri Krishna and the great-souled Arjuna.
Shri Purohit Swami
18
75
Sanskrit
original
व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम्।योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्।।18.75।।
null
18
75
Hindi
Commentary
।।18.75।। व्याख्या --   व्यासप्रसादात् श्रुतवान् -- सञ्जयने जब भगवान् श्रीकृष्ण और महात्मा अर्जुनका पूरा संवाद सुना? तब वे बड़े प्रसन्न हुए। अब उसी प्रसन्नतामें वे कह रहे हैं कि ऐसा परम गोपनीय योग मैंने भगवान् व्यासजीकी कृपासे सुना व्यासजीकी कृपासे सुननेका तात्पर्य यह है कि भगवान्ने यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया (10। 1)? इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् (18। 64)? मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे (18। 65)? अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः (18। 66) आदिआदि प्यारे वचनोंसे अपना हृदय खोलकर अर्जुनसे जो बातें कही हैं? उन बातोंको सुननेमें केवल व्यासदेवजीकी कृपा ही है अर्थात् सब बातें मैंने व्यासजीकी कृपासे ही सुनी हैं।एतद् गुह्यं परं योगम् -- समस्त योगोंके महान् ईश्वरके द्वारा कहा जानेसे यह गीताशास्त्रयोग अर्थात् योगशास्त्र है। यह गीताशास्त्र अत्यन्त श्रेष्ठ और गोपनीय है। इसके समान श्रेष्ठ और गोपनीय दूसरा कोई संवाद देखनेसुननेमें नहीं आता।जीवका भगवान्के साथ जो नित्यसम्बन्ध है? उसका नामयोग है। उस नित्ययोगकी पहचान करानेके लिये कर्मयोग? ज्ञानयोग आदि योग कहे गये हैं। उन योगोंके समुदायका वर्णन गीतामें होनेसे गीता भीयोग,अर्थात् योगशास्त्र है।योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम् -- सञ्जयके आनन्दकी कोई सीमा नहीं रही है। इसलिये वे हर्षोल्लासमें भरकर कह रहे हैं कि इस योगमें मैंने समस्त योगोंके महान् ईश्वर साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णके मुखसे सुना है। सञ्जयको योगेश्वरात्? कृष्णात्? साक्षात्? कथयतः? स्वयम् -- ये पाँच शब्द कहनेकी क्या आवश्यकता थी सञ्जय इन शब्दोंका प्रयोग करके यह कहना चाहते हैं कि मैंने यह संवाद परम्परामें नहीं सुना है और किसीने मुझे सुनाया हैऐसी बात भी नहीं इसको तो मैंने खुद भगवान्के कहतेकहते सुना है
Swami Ramsukhdas
18
75
Hindi
Commentary
।।18.75।।और इसे --, मैंने ( भगवान् ) व्यासजीकी कृपासे उनसे दिव्यचक्षु पाकर इस परम गुह्य संवादको और परम योगको,( सुना ) अथवा ( यों समझो कि ) योगविषयक होनेसे यह संवाद ही योग है? अतः इस संवादरूप योगको मैंने योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्णसे? साक्षात् स्वयं कहते हुए सुना है? परम्परासे नहीं।
Sri Shankaracharya
18
75
Sanskrit
Commentary
।।18.75।।प्रकृष्टं संवादं कथमश्रौषीरिति चेत्तत्राह -- तं चेति। एतत्पदं संवादपरत्वात्पुंल्लिङ्गत्वेन नेतव्यमित्याह -- एतमिति। परमपुरुषार्थौपयिकत्वात्परत्वं परं गुह्यमतिशयेन गुह्यं रहस्यमिति वा। योगो ज्ञानं कर्म च तदर्थत्वादयं संवादो योग उक्तः? अथवा चित्तवृत्तिनिरोधस्य योगस्याङ्गत्वादयं संवादो योग इत्याह -- संवादमिति। योगानामीश्वरो योगेश्वरस्तदनुग्रहहेतुत्वाद्योगतत्फलयोस्ततः साक्षादव्यवधानेन श्रुतवान्न परंपरयेत्याह -- योगेश्वरादिति। स्वयं स्वेन परमेश्वरेणातिरस्कृतज्ञानैश्वर्यरूपेण कथयतो व्याचक्षाणादित्यर्थः।
Sri Anandgiri
18
75
Sanskrit
Commentary
।।18.75।।व्यवहितस्त्वं कथं श्रुतवानित्यपेक्षायामाह -- व्यासप्रसादाल्लब्धदिव्येन्द्रियोऽहं इमं संवादं गुह्यमतिरहस्यं परं योगार्थत्वादयं संवादोऽपि योगस्तं चित्तवृत्तिनिरोधस्य योगस्याङ्गत्वाद्वा एष योगस्तं श्रुत्तवान् योगेश्वरात् कृष्णात्साक्षात्स्वयं कथयतः नतु परंपरातः। योगानामीश्वरादित्युक्त्या व्यवहितेन मया येन योगसामर्थ्येन श्रुतं तत् तस्यैव योगेश्वरस्य सामर्थ्यं नतु ममेति सूचयति। कृष्णादित्यनेन कृष्णप्रसाद एव कृष्णद्वैपायनप्रसादो नत्वन्य इति ध्वनयति।
Sri Dhanpati
18
75
Sanskrit
Commentary
।।18.75।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
Sri Madhavacharya
18
75
Sanskrit
Commentary
।।18.75।।कथमयं त्वया दूरस्थयोरपि वासुदेवार्जुनयोः संवादः श्रुत इत्यत आह -- व्यासप्रसादादिति। भगवता व्यासेन दिव्यं चक्षुः श्रोत्रादिकं मह्यं दत्तं येनाहं व्यवहितं विप्रकृष्टं वा सर्वं करतलामलकवद्विजानामि। अतो व्यासप्रसादादेतच्छास्त्रं परं गुह्यं गोप्यं अहं श्रुतवान्। योगं चपश्य मे योगमैश्वरम् इति प्रतिज्ञापूर्वकं प्रदर्शितं वैश्वरूप्यं तमपि दृष्टवानिति शेषः। स्वयं कथयत इत्युक्तेअस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद्यदृग्वेदः इति श्रुतेः स्वनिःश्वसितं वेदं शिष्याचार्यपरंपरया कथयत इत्यायाति तदर्थं साक्षात्कथयत इति। सृष्ट्यादौ ब्रह्माणं प्रतीव इदानीमर्जुनं प्रति साक्षात्कथयतः श्रुतवानहमित्यर्थः। तेन भगवदनुग्रहपात्रतया ब्रह्मणा समत्वं स्वस्य द्योत्यते। अत्र एतद्योगमित्यभेदेनान्वये तु गुह्यपदापेक्षया एतद्योगमिति पुंनपुंसकलिङ्गयोरपि सामानाधिकरण्यं शक्यं च यत्किंचिदश्नतापि क्षुदुपहन्तुमित्यादाविव पूर्वप्रवृत्तलिङ्गसंस्कारप्राबल्यादुत्तरत्र भिन्नलिङ्गविशेष्यलाभेऽपि पूर्वसंस्कारो न निवर्तत इति सामानाधिकरण्यं विलिङ्गयोरपि वक्तुं शक्यमिति ज्ञेयम्।
Sri Neelkanth
18
75
Sanskrit
Commentary
।।18.75।।व्यासप्रसादाद् व्यासानुग्रहेण दिव्यचक्षुःश्रोत्रलाभाद् एतत् परं योगाख्यं गुह्यं योगेश्वराद् ज्ञानबलैश्वर्यवीर्यशक्तितेजसां निधेः भगवतः कृष्णात् स्वयम् एव कथयतः साक्षात् श्रुतवान् अहम्।
Sri Ramanuja
18
75
Sanskrit
Commentary
।।18.75।।आत्मनस्तच्छ्रवणे संभावनामाह -- व्यासप्रसादादिति। भगवता व्यासेन दिव्यं चक्षुःश्रोत्रादि मह्यं दत्तम्? अतो व्यासस्य प्रसादादेतदहं श्रुतवानस्मि। किं तदित्यपेक्षायामाह परं योगम्। परत्वमाविष्करोति। योगेश्वराच्छ्रीकृष्णात्स्वयमेव साक्षात्कथयतः श्रुतवानिति।
Sri Sridhara Swami
18
75
Sanskrit
Commentary
।।18.75।।मन्दस्य मोहनकालुष्यनिवृत्तिलक्षणप्रसादस्यात्राभावात्व्यासानुग्रहेणेत्युक्तम्। देवैरप्यदृश्यस्य श्रीविश्वरूपस्य दर्शनार्थं दूरस्थवाक्यश्रवणार्थं च अनुग्रहावान्तरव्यापारमाह -- दिव्यचक्षुश्श्रोत्रलाभादिति। अतीन्द्रियादिग्रहणसामर्थ्यादिमात्रेणात्र दिव्यत्वम्। एतदिति नपुंसकनिष्पत्तये योगशब्दं विशेषणीकरोति -- योगाख्यमिति।परं ब्रह्म इत्यकर्मणि योग्यताभिप्रायम्। तथाभूतमपि हि मया श्रुतमिति व्यासमाहात्म्यव्यञ्जनम्।योगेश्वरात् इत्यत्र योगशब्दः कल्याणगुणयोगपरःएतां विभूतिं योगं च [10।7] इति प्रागुक्तवदित्याह -- ज्ञानेति। स्वयमेव कथयतः? न तु परैर्वाचयत इत्यर्थः। तेन वक्तृवैलक्षण्योक्तिः। यथापञ्चरात्रस्य कृत्स्नस्य वक्ता नारायणः स्वयम् [म.भा.12।348।68] इति।साक्षाच्छ्रुतवानहमिति -- न तु विवस्वदर्जुनादितच्छिष्यद्वारेत्यर्थः। यद्वा दूरस्थोऽपि प्रत्यक्षं श्रुतवानिति।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
18
75
Hindi
Commentary
।।18.75।। महाभारत युद्ध के प्रारम्भ होने के पूर्व? महर्षि व्यास जी ने धृतराष्ट्र को दिव्य दृष्टि का वरदान देने की अपनी इच्छा प्रकट की थी। परन्तु धृतराष्ट्र में उस वरदान को स्वीकार करने का साहस नहीं था। अत धृतराष्ट्र के अनुरोधानुसार युद्ध का सम्पूर्ण वृतान्त जानने के लिए संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की गयी। इस प्रकार? संजय सम्पूर्ण युद्धभूमि को देख सकने तथा वहाँ के संवादों को सुनने में भी समर्थ हुआ था। वैभवशाली राज प्रासाद में बैठकर वही अन्ध धृतराष्ट्र को युद्ध का वृतान्त सुनाता था। श्रीकृष्णार्जुन के संवाद के द्वारा परम् गुह्य ज्ञान के श्रवण का सुअवसर पाकर संजय कृतार्थ हो गया था। स्वाभाविक है कि वह सिद्ध कवि महर्षि व्यास जी के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता है और वह मन ही मन महाभारत के रचयिता? अतुलनीय सिद्ध कवि वेदव्यासजी को प्रणाम करता है।साक्षात् योगेश्वर श्रीकृष्ण से सुना ऐसी बात नहीं है कि संजय ने इसके पूर्व कभी औपनिषदिक ज्ञान को सुना ही नहीं था? जिससे वह इस अवसर पर विस्मयविमुग्ध हो जाय। उसके आनन्द का कारण यह था कि उसे इस ज्ञान का श्रवण करने का ऐसा अवसर मिला? जब साक्षात् योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही इस ज्ञान का उपदेश अपने मुखारविन्द से दे रहे थे।यहाँ? पुन? संजय का प्रयत्न धृतराष्ट्र को यह सूचित करना है कि गीताचार्य श्रीकृष्ण कोई देवकीपुत्र गोपबाल ही नहीं थे? वरन् वे सर्वशक्तिमान् परमात्मा ही थे। स्वयं उन्होंने ने ही अर्जुन को मोहनिद्रा से जगाया था और वे अपने भक्त के रथ के सारथी के रूप में कार्य भी कर रहे थे। वह अन्ध राजा को स्मरण कराता है कि यद्यपि धृतराष्ट्र पुत्रों की सेना पाण्डवों की सेना से अधिक विशाल और शास्त्रास्त्रों से सुसज्जित थी? तथापि उसका विनाश अवश्यंभावी था? क्योंकि उन्हें अपने शत्रुपक्ष में स्वयं अनन्त परमात्मा का ही सामना करना था।संजय आगे कहता है
Swami Chinmayananda
18
75
Hindi
Translation
।।18.75।।व्यासजीकी कृपासे मैंने स्वयं इस परम गोपनीय योग (गीता-ग्रन्थ) को कहते हुए साक्षात् योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्णसे सुना है।
Swami Ramsukhdas
18
75
Hindi
Translation
।।18.75।। व्यास जी की कृपा से मैंने इस परम् गुह्य योग को साक्षात् कहते हुए स्वयं योगोश्वर श्रीकृष्ण भगवान् से सुना।।
Swami Tejomayananda
18
75
Sanskrit
Commentary
।।18.74 -- 18.78।।इत्यहमित्यादि मतिर्ममेत्यन्तम्। संजयवचनेन संवादमुपसंहरन एतदर्थस्य गाढप्रबन्धक्रमेण निरन्तरचिन्तासन्तानोपकृतनैरन्तर्यादेव चान्ते सुपरिस्फुटनिर्विकल्पानुभवरूपतामापाद्यमानं स्मरणमात्रमेव परब्रह्मप्रदायकम् इत्युच्यते। एवं भगवदर्जुनसंवादमात्रस्मरणादेव तत्त्वावाप्त्या ( S? तत्त्वव्याप्त्या ) श्रीविजयविभूतय इति।।।शिवम्।।अत्र संग्रहश्लोकः -- भङ्क्त्वाऽज्ञानविमोहमन्थरमयीं सत्त्वादिभिन्नां धियं प्राप्य स्वात्मविबोधसुन्दरतया ( K स्वात्मविभूत -- ) विष्णुं विकल्पातिगम्।यत्किञ्चित् स्वरसोद्यदिन्द्रियनिजव्यापारमात्रस्थिते ( तो ) हेलातः कुरुते तदस्य सकलं संपद्यते शंकरम्।।।।इति श्रीमहामाहेश्वराचार्यवर्यराजानकाभिनवगुप्तपादविरचिते श्रीमद्भगवद्गीतार्थसंग्रहे अष्टादशोऽध्यायः।।[ आचार्यप्रशस्तिः ] श्रीमान् ( S श्रीमत्कात्यायनो -- ) कात्यायनोऽभूद्वररुचिसदृशः प्रस्फुरद्बोधतृप्त स्तद्वंशालंकृतो यः स्थिरमतिरभवत् सौशुकाख्योऽतिविद्वान्।विप्रः श्रीभूतिराजस्तदनु समभवत् तस्य सूनुर्महात्मा येनामी सर्वलोकास्तमसि निपतिताः प्रोद्धृतता भानुनेव।।1।।तच्चरणकमलमधुपो भगवद्गीतार्थसङ्ग्रहं व्यदधात्।अभिनवगुप्तः सद्द्विज लोटककृतचोदनावशतः ( S लोठककृत -- ?N लोककृत)।।2।।अत इयमयथार्थं वा यथार्थमपि सर्वथा नैव।विदुषामसूयनीयं कृत्यमिदं बान्धवार्थं हि।।3।।अभिनवरूपा शक्ति स्तद्गुप्तो यो महेश्वरो देवः।तदुभयथामलरूपम् ( ? K? S तदुभययामल -- ) अभिनवगुप्तं शिवं वन्दे।।4।।परिपूर्णोऽयं ( This verse is given differently in different Mss. S परिपूर्णोऽयं गीतार्थसंग्रहः।कृतिस्त्रिनयनचरणचिन्तनलब्धप्रसिद्धेश्श्रीमदभिनवगुप्तस्य।? N? K अत इत्ययमर्थसंग्रहः। [ N substitutes this sentence with परिपूर्णोऽयं श्रीमद्भगवद्गीतार्थसंग्रहः। ] कृतिश्चेयं परमेश्वरचरण [ K adds सरोरुह ] चिन्तन लब्धचिदात्मसाक्षात्काराचार्याभिनवगुप्तपादानाम्। ) श्रीमद् भगवद्गीतार्थसंग्रहः [ सु ] कृतिः।त्रिणयनचरण [ वि ] चिन्तन लब्धप्रसिद्धेरभिनवगुप्तस्य।।5।।।।इति शिवम्।।
Sri Abhinavgupta
18
75
Sanskrit
Commentary
।।18.75।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
Sri Jayatirtha
18
75
Sanskrit
Commentary
।।18.75।।व्यवहितस्यापि भगवदर्जुनसंवादस्य श्रवणयोग्यतामात्मन आह -- व्यासप्रसादादिति। व्यासदत्तदिव्यचक्षुःश्रोत्रादिलाभरूपात् व्यासप्रसादादिमं परं गुह्यं योगं योगाव्यभिचारिहेतुं संवादं योगेश्वरात्कृष्णात्स्वयं स्वेन पारमेश्वरेण रूपेण कथयतः साक्षादेवाहं श्रुतवानस्मि न परंपरयेति स्वभाग्यमभिनन्दति। अत्रेममिति पुंलिङ्गपाठो भाष्यकारैर्व्याख्यात एतदिति नपुंसकलिङ्गपाठस्यैव,योगसामानाधिकरण्येन व्याख्यानमिदमिति तद्व्याख्यातारः।
Sri Madhusudan Saraswati
18
75
Sanskrit
Commentary
।।18.75।।ननु द्वेषभावसम्बन्धे सति कथं श्रुतं इत्यत आह -- व्यासप्रसादादिति। व्यासस्य भगवज्ज्ञानावतारस्य प्रसादात् चक्षुश्श्रोत्रादिकं व्यासेनालौकिकं दिव्यं दत्तं? तेन श्रुतवानस्मि। किं तदिति श्रुतं इत्यत आह। एतत् परिदृश्यमानं गुह्यं गोप्यं परं सर्वोत्कृष्टं योगं योगेश्वरात् कृष्णात् साक्षात् स्वयं कथयतःश्रुतवानस्मि।
Sri Purushottamji
18
75
Sanskrit
Commentary
।।18.75।। --,व्यासप्रसादात् ततः दिव्यचक्षुर्लाभात् श्रुतवान् इमं संवादं गुह्यतमं परं योगम्? योगार्थत्वात् ग्रन्थोऽपि योगः? संवादम् इमं योगमेव वा योगेश्वरात् कृष्णात् साक्षात् कथयतः स्वयम्? न परम्परया।।
Sri Shankaracharya
18
75
Sanskrit
Commentary
।।18.75।।ननु कथमेवं त्वया श्रुतोऽयं संवाद इति चेत्तत्राऽऽह -- व्यासप्रसादादिति। दिव्यचक्षुः श्रोत्रादि मह्यं दत्तं? वासुदेवेनार्जुनाय इव। तदेतत्परमं गुह्यं योगं साक्षात्स्वयं कथयतो योगेश्वरात्कृष्णाद्धेतोः परं अनेन कृष्णसम्बन्धात्परत्वमुक्तं तेन साक्षाद्भगवद्वाक्यत्वमेव सिद्ध्यतिया स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिस्सृता? इति गीतामाहात्म्यवाक्यात्वेदाः श्रीकृष्णवाक्यानि इति श्रीमदाचार्योक्तेश्च। तेनैतदर्जुनस्य प्रबोधकं जातमित्यर्थः। न चेश्वरानुगीतोपदेश एवार्जुनस्य प्रबोधक इति वाच्यं? एतच्छेषभूतत्वादिति गृहाण।
Sri Vallabhacharya
18
75
English
Commentary
18.75 व्यासप्रसादात् through the grace of Vyasa, श्रुतवान् have heard, एतत् this, गुह्यम् secret, अहम् I, परम् supreme, योगम् Yoga, योगेश्वरात् from the Lord of Yoga, कृष्णात् from Krishna, साक्षात् directly, कथयतः declaring, स्वयम् Himself.Commentary: Through the grace of Vyasa By obtaining the divine eye from him.Yoga This dialogue between Krishna and Arjuna, I have heard it direct from Him. This dialogue is called Yoga because it treats of Yoga and it leads to the attainment of union with the Lord.
Swami Sivananda
18
75
English
Translation
18.75 By the grace of Vyasa have I heard this supreme mystery of Yoga as declared in person by Krsna, the Lord of Yoga.
Swami Adidevananda
18
75
English
Translation
18.75 Through the favour of Vyasa I heard this secret concerning the supreme Yoga from Krsna, the Lord of yogas, while He Himself was actually speaking!
Swami Gambirananda
18
75
English
Translation
18.75 Through the grace of Vyasa I have heard this supreme and most secret Yoga direct from Krishna, the Lord of Yoga, Himself declaring it.
Swami Sivananda
18
75
English
Commentary
18.75 And vyasa-prasadat, through the favour of Vyasa, by having received divine vision from him; aham, I; srutvan, heard; etat [The Commentator uses etam in the masculine gender, in place of etat in the text, because it refers to the masculine word samvada.] (should rather be etam), this; guhyam, secret dialogue, such as it is; concerning the param, supreme; Yogam, Yoga-or, this dialogue itself is the Yoga because it is meant for it-; krsnat, from Krsna; yogeswarat, from the Lord of yogas; kathayatah, while He was speaking; svayam, Himself; saksat, actually; not indirectly through others.
Sri Shankaracharya
18
75
English
Commentary
18.75 See Comment under 18.78
Abhinavgupta
18
75
English
Commentary
18.75 By the grace of Vyasa i.e., by the benefit of the divine sense of perception, granted by him, I have heard this supreme mystery called Yoga from Sri Krsna himself - Sri Krsna who is the treasure-house of knowledge, strength, sovereignty, valour, power and brilliance.
Ramanuja
18
75
English
Translation
18.75. Through the grace of Vyasa, I have heard this highly secret supreme Yoga from Krsna, the Lord of the Yogins, while He was Himself imparting it personally.
Dr. S. Sankaranarayan
18
75
English
Translation
18.75 Through the blessing of the sage Vyasa, I listened to this secret and noble science from the lips of its Master, the Lord Shri Krishna.
Shri Purohit Swami
18
76
Sanskrit
original
राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः।।18.76।।
null
18
76
Hindi
Commentary
।।18.76।। व्याख्या --   राजन्संस्मृत्य ৷৷. मुहुर्मुहुः -- सञ्जय कहते हैं कि हे महाराज भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनका यह बहुत अलौकिक? विलक्षण संवाद हुआ है। इसमें कितना रहस्य भरा हुआ है कि घोरसेघोर युद्धरूप क्रिया करते हुए भी ऊँचीसेऊँची पारमार्थिक सिद्धि हो सकती है मनुष्यमात्र हरेक परिस्थितिमें अपना उद्धार कर सकता है। इस प्रकारके संवादको याद करकरके मैं बड़ा हर्षित हो रहा हूँ? प्रसन्न हो रहा हूँ।श्रीभगवान् और अर्जुनके इस अद्भुत संवादकी महिमा भी बहुत विलक्षण है। भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन सदा साथमें रहनेपर भी इन दोनोंका ऐसा संवाद कभी नहीं हुआ। युद्धके समय अर्जुन घबरा गये क्योंकि एक तरफ तो उनको कुटुम्बका मोह तंग कर रहा था और दूसरी तरफ वे क्षात्रधर्मकी दृष्टिसे युद्ध करना अवश्य कर्तव्य समझते थे। मनुष्यकी जब किसी एक सिद्धान्तपर? एक मतपर स्थिति नहीं होती? तब उसकी व्याकुलता बड़ी विचित्र होती है (टिप्पणी प0 1000)। अर्जुन भीयुद्ध करना श्रेष्ठ है या युद्ध न करना श्रेष्ठ है -- इन दोनोंमेंसे एक निश्चित निर्णय नहीं कर सके। इसी व्याकुलताके कारण अर्जुन भगवान्की तरफ खिंच गये? उनके सम्मुख हो गये। सम्मुख होनेसे भगवान्की कृपा उनको विशेषतासे प्राप्त हुई। अर्जुनकी अनन्य भावना? उत्कण्ठाके कारण भगवान् योगमें स्थित हो गये अर्थात् ऐश्वर्य आदिमें स्थित न रहकर केवल अपने प्रेमतत्त्वमें सराबोर हो गये और उसी स्थितिमें अर्जुनको समझाया। इस प्रकार उत्कट अभिलषासम्पन्न अर्जुन और अलौकिक अटलयोगमें स्थित भगवान्के संवादका क्या महिमा कहें उसकी महिमाको कहनेमें कोई भी समर्थ नहीं है।
Swami Ramsukhdas
18
76
Hindi
Commentary
।।18.76।।हे राजन् धृतराष्ट्र केशव और अर्जुनके इस ( परम ) पवित्र -- सुननेमात्रसे पापोंका नाश करनेवाले? अद्भुत संवादको सुनकर और बारम्बार स्मरण करके? मैं प्रतिक्षण बारम्बार हर्षित हो रहा हूँ।
Sri Shankaracharya
18
76
Sanskrit
Commentary
।।18.76।।यथोक्तं संवादं भगवतः श्रुत्वा किमुपेक्षसे नेत्याह -- राजन्निति। पुण्यत्वं साधयति -- श्रवणादपीति।
Sri Anandgiri
18
76
Sanskrit
Commentary
।।18.76।।किंचेममेव केशवार्जुनयोः संवादमद्भुतं पुण्यं श्रवणमात्रेणापि पापहरं श्रुत्वा संस्मृत्य संस्मृत्य पुनः पुनः स्मृत्वा,मुहुर्मुहुः प्रतिक्षणं हृष्यामि रोमाञ्चितो भवामि हर्षं प्राप्नोमीति वा। तयोः संवादं श्रुतवान् त्वमपि वैरं विहाय कृष्णभक्तिमत्यादरेणाङ्गीकुर्वन्नत्यन्तदीप्तिमानत्यन्तहृष्टो वास्तवो राजा भवेति बोधयन् संबोधयति हे राजन्निति।
Sri Dhanpati
18
76
Sanskrit
Commentary
।।18.76।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
Sri Madhavacharya
18
76
Sanskrit
Commentary
।।18.76।।केशवार्जुनसंवादश्रवणजं विश्वरूपाख्ययोगदर्शनजं चाह्लादं क्रमेण श्लोकद्वयेनाह -- राजन्निति। हे राजन् हे धृतराष्ट्र? पुण्यं पुण्यकरं पापहरं चेत्यर्थात्। संस्मृत्यसंस्मृत्येति संभ्रमे द्विरुक्तिः। शेषं स्पष्टार्थम्।
Sri Neelkanth
18
76
Sanskrit
Commentary
।।18.76।।केशवार्जुनयोः इमं पुण्यम् अद्भुतं संवादं साक्षाच्छ्रुतं स्मृत्वा मुहुः मुहुः हृष्यामि।
Sri Ramanuja
18
76
Sanskrit
Commentary
।।18.76।।किंच -- राजन्निति। हृष्यामि रोमाञ्चितो भवामि हर्षं प्राप्नोमीति वा। स्पष्टमन्यत्।
Sri Sridhara Swami
18
76
Sanskrit
Commentary
।।18.76।।अद्भुततरत्वमाह -- राजन् इत्यादिना श्लोकद्वयेन। पुण्यं श्रवणमात्रेणापि ज्ञानयज्ञादिवत्पावनम्। अद्भुतं शब्दतोऽर्थतश्च आश्चार्यावहम्।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
18
76
Hindi
Commentary
।।18.76।। ईश्वरीय काव्य गीता को श्रवण करके संजय इस श्लोक में अपनी स्पष्ट प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहता है कि भगवान् केशव और मानव अर्जुन सम्पूर्ण एवं अपूर्ण? उच्च एवं निम्न के मध्य यह संवाद अद्भुत और पुण्यपवित्र है।संजय द्वारा श्रवण किया गया गीता का ज्ञान इतना गम्भीर और आकर्षक रूप से बोधगम्य था कि वह उसे पुन पुन स्मरण करके अपने हृदय में बारम्बार हर्षित हो रहा था।गीता जीवन जीने की कला को बताने वाली सूचनाओं की निर्देशिका है अत? यहाँ भी महर्षि व्यास जी अप्रत्यक्ष रूप से हमें साधनमार्ग का संकेत करते हैं। संस्मृत्य (स्मरण करके) शब्द के द्वारा वे यह दर्शाते हैं कि साधक को श्रवण करने के पश्चात्? बारम्बार मनन? अर्थात् प्राप्त ज्ञान पर चिन्तन करना चाहिए। सम्यक् ज्ञान का फल हर्ष होगा।गर्भ से शवागर्त तक की निरर्थक जीवन यात्रा में? जब मनुष्य कोई निश्चित दिव्य लक्ष्य देख लेता है? तब वह प्रसन्न हो जाता है। गीता का अध्ययन न केवल हमारे दैनिक जीवन को ही अर्थवन्त बना देता है? वरन् सम्पूर्ण जगत् को एक सुनिश्चित आशा और आनन्द का सन्देश भी देता है। गीता हमें जीवन की अन्धेरी गलियों से उठाकर? अपने आन्तरिक साम्राज्य के राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित कर देती है। वह मनुष्य को अपनी आन्तरिक परिस्थितियों का सम्राट बना देती है। अज्ञान की दशा में मनुष्य के जीवन का अर्थ केवल वस्तुओं और प्राणियों के आविर्भाव और तिरोभाव रूपी मृत्यु का विक्षिप्त नृत्य ही होता है परन्तु गीताज्ञान से शिक्षित पुरुष उसी दिन प्रतिदिन के सामान्य जीवन में एक लय को पहचानता है? सुन्दरता का अवलोकन करता है और मधुर संगीत का श्रवण करता है।विश्वरूप दर्शन का स्मरण करते हुए संजय कहता है
Swami Chinmayananda
18
76
Hindi
Translation
।।18.76।।हे राजन् ! भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनके इस पवित्र और अद्भुत संवादको याद कर-करके मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ।
Swami Ramsukhdas
18
76
Hindi
Translation
।।18.76।। हे राजन् ! भगवान् केशव और अर्जुन के इस अद्भुत और पुण्य (पवित्र) संवाद को स्मरण करके मैं बारम्बार हर्षित होता हूँ।।
Swami Tejomayananda
18
76
Sanskrit
Commentary
।।18.74 -- 18.78।।इत्यहमित्यादि मतिर्ममेत्यन्तम्। संजयवचनेन संवादमुपसंहरन एतदर्थस्य गाढप्रबन्धक्रमेण निरन्तरचिन्तासन्तानोपकृतनैरन्तर्यादेव चान्ते सुपरिस्फुटनिर्विकल्पानुभवरूपतामापाद्यमानं स्मरणमात्रमेव परब्रह्मप्रदायकम् इत्युच्यते। एवं भगवदर्जुनसंवादमात्रस्मरणादेव तत्त्वावाप्त्या ( S? तत्त्वव्याप्त्या ) श्रीविजयविभूतय इति।।।शिवम्।।अत्र संग्रहश्लोकः -- भङ्क्त्वाऽज्ञानविमोहमन्थरमयीं सत्त्वादिभिन्नां धियं प्राप्य स्वात्मविबोधसुन्दरतया ( K स्वात्मविभूत -- ) विष्णुं विकल्पातिगम्।यत्किञ्चित् स्वरसोद्यदिन्द्रियनिजव्यापारमात्रस्थिते ( तो ) हेलातः कुरुते तदस्य सकलं संपद्यते शंकरम्।।।।इति श्रीमहामाहेश्वराचार्यवर्यराजानकाभिनवगुप्तपादविरचिते श्रीमद्भगवद्गीतार्थसंग्रहे अष्टादशोऽध्यायः।।[ आचार्यप्रशस्तिः ] श्रीमान् ( S श्रीमत्कात्यायनो -- ) कात्यायनोऽभूद्वररुचिसदृशः प्रस्फुरद्बोधतृप्त स्तद्वंशालंकृतो यः स्थिरमतिरभवत् सौशुकाख्योऽतिविद्वान्।विप्रः श्रीभूतिराजस्तदनु समभवत् तस्य सूनुर्महात्मा येनामी सर्वलोकास्तमसि निपतिताः प्रोद्धृतता भानुनेव।।1।।तच्चरणकमलमधुपो भगवद्गीतार्थसङ्ग्रहं व्यदधात्।अभिनवगुप्तः सद्द्विज लोटककृतचोदनावशतः ( S लोठककृत -- ?N लोककृत)।।2।।अत इयमयथार्थं वा यथार्थमपि सर्वथा नैव।विदुषामसूयनीयं कृत्यमिदं बान्धवार्थं हि।।3।।अभिनवरूपा शक्ति स्तद्गुप्तो यो महेश्वरो देवः।तदुभयथामलरूपम् ( ? K? S तदुभययामल -- ) अभिनवगुप्तं शिवं वन्दे।।4।।परिपूर्णोऽयं ( This verse is given differently in different Mss. S परिपूर्णोऽयं गीतार्थसंग्रहः।कृतिस्त्रिनयनचरणचिन्तनलब्धप्रसिद्धेश्श्रीमदभिनवगुप्तस्य।? N? K अत इत्ययमर्थसंग्रहः। [ N substitutes this sentence with परिपूर्णोऽयं श्रीमद्भगवद्गीतार्थसंग्रहः। ] कृतिश्चेयं परमेश्वरचरण [ K adds सरोरुह ] चिन्तन लब्धचिदात्मसाक्षात्काराचार्याभिनवगुप्तपादानाम्। ) श्रीमद् भगवद्गीतार्थसंग्रहः [ सु ] कृतिः।त्रिणयनचरण [ वि ] चिन्तन लब्धप्रसिद्धेरभिनवगुप्तस्य।।5।।।।इति शिवम्।।
Sri Abhinavgupta